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रंगमंच:एक विमर्श

“लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी खुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-किमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग
हम क्या रहे यहां अभी आए अभी चले

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले

नाजां न हो ख़िरद पे जो होना है वो ही हो
दानिश तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले

जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से ‘ज़ौक़’
अपनी बला से बादे-सबा अब कहीं चले।”

मशहूर शायर ज़ौक़ साहब की इन पंक्तियों को आज जब हम पढ़ते हैं तो लगता है कि जैसे कोरोना महामारी के हालातों पर ही इन्हें लिखा गया हो।सच्चाई यही है कि हम न तो इस दुनिया में अपनी खुशी से आते हैं और न ही जाते हैं पर आज इस त्रासदी के चलते जब इतने अपने लोगों को असमय अपने बीच से जाता हुआ देख रहे हैं तो इन पंक्तियों के भाव कुछ ज़्यादा ही समझ आ रहे हैं।
इसी तरह कितना यथार्थ है इन पंक्तियों में – ‘हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग’ सच में लंबी ज़िंदगी मिलने के बाद भी मृत्यु के समय (ब-वक़्ते-मर्ग) हम यही सोचते हैं कि इस संसार मे हमें रहने का अवसर ही नहीं मिला, अभी तो आये थे, अभी जा रहे हैं परंतु आज बहुत से लोगों के यही हालात बन गए हैं, इस कोरोना की त्रासदी ने बिना ज़िंदगी को जिये ही न जाने कितने लोगों को मौत के आगोश में सो जाने को मजबूर कर दिया है परंतु यह भी सच ही है कि आज हमारी आपकी किसी की भी समझदारी काम नही आ रही और हम उस परमसत्ता के आदेशों को मानो सिर नीचा कर स्वीकार करने पर विवश हैं।हमारा जीवन उस परी कथा के समान है, जिसे ईश्वर ने अपने हाथों से लिखा है परंतु इस विवशता में भी हमें आशा की किरण तो ढूंढनी ही होगी और इन परिस्थितियों का सामना बहादुरी से करना होगा।
आज हम सबने ही कुछ न कुछ खोया है।
हमारी रचनात्मकता, सृजनात्मकता जैसे कहीं खो गयी है।एक ही प्रश्न दिल में उठता है कि हमारा रचनाकार, हमारा सृजनकर्ता कहां बैठा है, वह हमारा यह हाल कैसे और क्यों देख रहा है ?
ज़ौक़ साहब ने ठीक ही लिखा है कि दुनिया से दिल न लगाना ही बेहतर है, लेकिन किसे पता था कि आज हालात ऐसे होंगे कि हमारे बहुत से अपने इतनी बे-दिल्लगी से हमें छोड़कर चले जाएंगे। वास्तव में ईश्वर हम सबकी परीक्षा ही ले रहे हैं तो हम सबको भावुकता के साथ साथ संवेदनशील होना होगा।हर दुख को अपना समझेंगे तभी आज की परिस्थितियों से उबर पाएंगे।


इस दौर में लोग या तो अति सकारात्मक हो रहे हैं या अति नकारात्मक, पर दोनों बातें गलत हैं।हमें संतुलन बनाना होगा।दोहरे मापदंड अब त्यागने होंगे।सिर्फ बातें करने से मुझे नही लगता कि कुछ हासिल होगा, बल्कि हमें व्यावहारिक रूप से कुछ न कुछ छोटे-छोटे प्रयास करने होंगे।हमें इस दुख को हराना है वरना यह हमें हरा देगा।
इस दुख को कैसे हराएं, आज के हालातों के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करें ? इन सब बातों को करने के लिए आज हमने ‘चुभन’ पर वरिष्ठ रंगकर्मी प्रभात कुमार बोस जी को आमंत्रित किया है।आप ‘आकांक्षा थिएटर आर्ट्स’ के फाउंडर डायरेक्टर हैं।आज उनके साथ उनके जीवन सफर और रंगसफर में भी उनकी हमसफर, उनकी जीवन संगिनी अचला बोस जी भी होंगी।

अचला जी आकांक्षा थिएटर से 1985 से ही जुड़ी हुईं हैं और आप एक बहुत ही कुशल और संवेदनशील अभिनेत्री हैं, आपकी सम्वेदनशीलता आपके व्यक्तित्व की पहचान बन गयी है।एक भावुक हृदय हमेशा ही दूसरों के दुख को समझता और महसूस भी करता है।अचला जी ने अपनी भावुकता को समाज सेवा की ओर लगा दिया है।

आज सबसे ज़्यादा अच्छा मुझे यह लग रहा है कि प्रभात जी और अचला जी की बेटी श्रद्धा बोस जी भी हमारे साथ होंगी, जो कि थिएटर जगत का एक युवा और जाना-पहचाना चेहरा है।आपने अपने विचारों को ‘चुभन’ पर बहुत ही साफगोई से पेश किया।श्रद्धा जी का कहना है कि कलाकार को अपनी इंसानियत को नही मरने देना चाहिए, यह बात सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है और यह सब बातें उन्हें अपने माता-पिता प्रभात कुमार बोस जी और अचला बोस जी से और गुरु पुनीत अस्थाना जी, जिनका ज़िक्र आपने कार्यक्रम में किया, सीखने को मिलती है।श्रद्धा जी का कहना है कि नए अविष्कारों, तकनीक और गैजेट्स का प्रयोग बिल्कुल भी गलत नहीं है, परंतु जड़ों से जुड़े रहना भी हमारे लिए बहुत आवश्यक है, क्योंकि अपनी जड़ों से जुड़े रहकर ही हम खुश और संतुष्ट रह सकते हैं।


ज़िंदगी के स्याह-सफेद पन्नों पर अपनी कला और अभिनय से खूबसूरत रंग भरते, इस रंगकर्मी परिवार के साथ एक सहज-सीधी बातचीत आप ‘चुभन’ के पॉडकास्ट पर सुन सकते हैं।

2 thoughts on “रंगमंच:एक विमर्श

  1. रंगमंच पर अभिनय जीवन के वास्तविकता का बोध कराता है, कोरोना काल की इस महामारी ने जहां एक ओर हमे अपने सामाजिक परिवेश से, हमारी सांस्कृतिक गतिविधियों से दूर रखा वहीं हमें बहुत कुछ सिखा भी गया।जीवन शैली के इस बदलाव को आज हमें स्वीकार करना ही पड़े, यही हमारी नीति बन कर हमारे समक्ष उपस्थित है ।

  2. अपनी कला और अभिनय से हमें मोहित करते रहने वाले इस सफल जोडी की सुनना सुखद अनुभूति

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