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विश्व का एकमात्र अंक काव्य : सिरि भूवलय

– डॉ.स्वर्ण ज्योति

भाषा विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। मानव का मानव से संपर्क माध्यम है भाषा। किंतु भाषा क्या है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई?
मानव ध्वनि संकेतों के सहारे अपने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति करने के लिए जिस माध्यम को अपनाता है उसे भाषा की संज्ञा दी जाती है।
भाषा शब्द संस्कृत के भाष् धातु से निषपन्न हुआ है जिसका अर्थ है व्यक्त वाणी।
भाषा की उत्पत्ति के संदर्भ में कई सिध्दांत प्रचलित हैं। भाषा की उत्पत्ति इतने प्राचीन काल में हुई कि उस पर विचार करने के लिए हमारे पास आज कोई आधार नहीं है।इस प्रश्न का संतोषजनक और सर्व सामान्य उत्तर ढूंढना कठिन है।

प्राचीन काल में मानव के लिए अंगिकाभिनय ही भावाभिव्यक्ति का साधन था। इस व्यवस्था ने आगे चलकर चित्राभिव्यक्ति का रूप धारण कर लिया । आदि मानव ने चट्टानों, पत्थरों और दीवारों पर अपने भावों को चित्रों के रूप में अंकित किया, इसे मानव शास्त्रज्ञ ‘चित्र लिपियुग’ कहते हैं।मानव के द्वारा बोली के आविष्कार करने के कई वर्षों के पश्चात लिपि का आविष्कार हुआ।लिपि के साथ संख्या भी अवतरित हुई। मानव जब अपने भावों और अनुभवों को अक्षर रूप में उतारने लगा तब साहित्य का निर्माण हुआ। इसे ‘अक्षर लिपि काव्य’ कहा गया । इसी प्रकार स्पंदित होकर भावों – अनुभावों को भाषा की तरह ही समर्थ रूप से प्रकट करने के लिए संख्या रूपी संकेतो का जन्म हुआ। इस प्रकार रचित काव्य को ‘संख्या लिपि काव्य’ कह सकते हैं। इस रीति से उपलब्ध संख्या लिपि का एकैक आश्चर्य जनक काव्य, कुमुदेंदु विरचित ‘सिरिभूवलय’ अंक काव्य होने पर भी इसमें 718 भाषाएँ समाहित हैं। ऐसा कवि का कथन है।
आज से अर्द्ध शताब्दी पूर्व इस अंक काव्य को संग्रहित व संपादन करने के लिए तीन महानुभव, पंडित यलप्पा शास्त्री , कर्ल मंगलं श्री कंठैय्या और के.अनंत सुब्बाराव जी ने अथक प्रयास किया। वर्ष 2003 में यह अंक काव्य ग्रंथ कन्नड अक्षरों के साथ प्रकाशित हुआ। यह इस ग्रंथ का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ लंबे समय तक अपरिचित रहा । वर्ष 2003 में इस ग्रंथ के प्रकाशन के पश्चात इस महान ग्रंथ का हिंदी में अनुवाद करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।अनुवाद करते समय मुझे यह ज्ञात हुआ कि इस अंक ग्रंथ में 64 अंकों को अक्षरों में परिवर्तित कर ग्रंथ को पढ़ने का प्रयास किया गया है।इस अंक ग्रंथ में 64 वर्णमाला है जो ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत आदि ध्वनियों में विभक्त हुए हैं ।
• भाषा विज्ञानी भी ध्वनि विज्ञान को अपनी एक शाखा के रूप में स्वीकार करते हैं। ध्वनियाँ शब्द और अक्षर को खंडित करने से प्राप्त होती है।
हिन्दी वर्णमाला में 44 वर्ण माने गए हैं । परंतु जब हम बात करते हैं तब अनेक उच्चारण ध्वनियाँ होती हैं। उन ध्वनियों को हम लिख नहीं सकते। इन्हीं उच्चारण ध्वनियों को ‘सिरि भूवलय’ में स्पष्ट किया गया है।
‘सिरि भूवलय’ के अनुसार 27 स्वर, 33 व्यंजन और 4 आयोगवाह हैं।कुल मिला कर 64 ध्वनियाँ या स्वनिम हैं।
इस ग्रंथ की रचना आठवीं शताब्दी के लगभग हुई थी और भाषा विज्ञान का प्रादुर्भाव आधुनिक काल में हुआ है। वास्तव में देखा जाए तो भाषा विज्ञान का प्रारंभ भारत में हुआ, ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। किंतु आधुनिक काल में अपने देश में इसके प्रति रूचि बहुत बाद में जगी और वह भी यूरोपीय प्रेरणा के फलस्वरूप, लगभग तीन-चार दशकों से यह विषय काफी लोकप्रिय हुआ है और होता जा रहा है ।
इस दृष्टि से भाषा विज्ञान और ‘सिरि भूवलय’ का विश्लेषण एक नई सोच और दिशा प्रदान करने में सहायक है। यह संपूर्ण ग्रंथ ध्वनियों पर और अक्षरों पर आधारित है। अंक काव्य होने के बावजूद अंकों को अक्षरों में परिवर्तित करने के पश्चात ही ग्रंथ को पढा जा सकता है और ध्वनियों के आधार पर ही अक्षरों में परिवर्तित किया गया है।
इस विलक्षण ग्रंथ में मूल विज्ञान विषय, दर्शन का तात्विक विचार, वैद्य अणु विज्ञान, खगोल विज्ञान, गणित शास्त्र, इतिहास और संस्कृति विवरण, वेद, भगवद गीता के अवतरण सभी समाहित हैं ।
सिरि भूवलय – एक संक्षिप्त परिचय- श्री कुमुदेंदु विरचित सिरि भूवलय 56 अध्यायों का एक जैन ग्रंथ है, परंतु यह परिचित रीति ग्रंथ नहीं है। अर्थात किसी एक भाषा के वर्णमाला के वर्णों का प्रयोग कर तैयार किए गए शब्दों में लिपि बध्द रूप का गद्य-पद्य- निबंध ग्रंथ नहीं है। गणित में प्रयोग किए जाने वाले संख्याओं का प्रयोग कर तैयार किया गया ग्रंथ है।अंकों को अक्षरों के स्थान पर उनके प्रतिनिधि तथा प्रतिरूप के रूप में उपयोग करना ही इसका वैशिष्टय और वैलक्षण है। संस्कृत-प्राकृत और कन्नड भाषा के लिए समान रूप से संबंधित संप्रदाय रूप प्राप्त 64 मूल वर्णों को 1 से लेकर 64 तक के अंक प्रतिनिधित्व करते हैं।

प्रत्येक अक्षरों के लिए उपयुक्त अंकों को चौकोर खानों में (27 * 27 = 729) भरे गए अंक राशी चक्र ही इस ग्रंथ के पृष्ठ हैं। कवि इसे अंक काव्य कहकर संबोधित करते हैं।अंक काव्य होने पर भी इसमें 718 भाषाएं निहित हैं। ऐसा कवि का कहना है । कुमुदेंदु की स्व हस्ताक्षर प्रति उपलब्ध नहीं है।

ध्वनि विज्ञान और ‘सिरि भूवलय’ की ध्वनियाँ- भाषा विज्ञान की एक शाखा ध्वनि विज्ञान है।जिसमें ध्वनि का अध्ययन किया जाता है। वाक्य को खंडित करने पर पद मिलते हैं तथा पद को खंडित करने पर शब्द और संबंध तत्व मिलते हैं। संबंध तत्व और शब्द को खंडित करने पर ध्वनियाँ मिलती हैं । इन्हीं ध्वनियों का अध्ययन ध्वनि विज्ञान में किया जाता है। वक्ता ध्वनियाँ उच्चारित करता है फिर वे वायु के द्वारा लाईं जाती हैं और फिर श्रोता उन्हें सुनता है।इन्हीं तीन आधारों पर ध्वनि विज्ञान का वर्गीकरण किया जाता है।
सिरि भूवलय में भी अंकों को ध्वनियों के आधार पर अक्षरों का रूप दिया गया है।भाषा विज्ञान के साथ ‘सिरि भूवलय’ का यही गूढ संबंध है।
हम केवल ह्रस्व एवं दीर्घ स्वरों का प्रयोग करते हैं और उन्हीं को लिखते हैं परंतु ‘सिरि भूवलय’ यह स्पष्ट रूप से कहता है कि उच्चारण के समय हम केवल ह्रस्व या दीर्घ स्वरों का नहीं वरन प्लुत ( दीर्घ से भी बड़ा) स्वरों का भी प्रयोग करते हैं।इन ध्वनियों के आधार पर यदि वर्णमाला तैयार की जाए तो 64 अक्षर बन सकते हैं।

आदि तीर्थंकर होने वाले पुरदेव तीसरे परिनिष्क्रमण कल्याण के बाद वैराग्य परावश होकर समस्त साम्राज्य को अपने पुत्रों में बाँट देते हैं।उस समय आदि देव की दो पुत्रियाँ कुछ शाश्वत संपत्ति देने का आग्रह पिता से करती हैं।तब आदि नाथ वॄषभ स्वामी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को अपनी बाँयी तथा छोटी पुत्री सौन्दरी को अपनी दाँयीं गोदी में बिठा कर ब्राह्मी के बाँयें हाथ पर अपने दाँएँ हाथ के अँगूठे से ॐ लिखते हैं ।उसमें 64 अक्षरों के वर्णमाला का सृजन कर ” यह तुम्हारे नाम में अक्षर हो” और “समस्त भाषाओं के लिए इतने ही अक्षर पर्याप्त हो,” कह कर आशीर्वाद देते हैं । ब्राह्मी से अक्षर लिपि को ‘ब्राह्मी लिपि’ का नाम पड़ा। उनके द्वारा ब्राह्मी को ” साहित्य शारदे” नाम की शाश्वत संपत्ति प्राप्त हुई ।
वृषभस्वामी अपनी दाँयी गोदी पर बैठी सौन्दरी के दाहिने हथेली पर अपने बाँएँ हाथ के अँगूठे से उसकी हथेली के मध्य भाग पर शून्य लिख कर इस शून्य को मध्य भाग में काटे तो ऊपर का भाग (टोपी के आकार का) और नीचे के भाग को अर्थ पूर्ण ढंग से मिलाते जाए तो 9 अंकों की सृष्टि होगी। इस तरह शून्य से ही विश्व की और गणित में अंकों की सृष्टि को दिखा कर सौन्दरी को गणित अथवा संख्या शास्त्र विशारदे नाम की शाश्वत संपत्ति प्रदान करते हैं ।
इस प्रकार सौन्दरी के अंक ही अक्षरों के और ब्राह्मी के अक्षर ही अंकों के बराबर होंगें ऐसा स्पष्ट कर दोनों पुत्रियों को दी गई शाश्वत संपत्ति एक ही वज़न की है, कह ‘अंकाक्षर लिपि’ में भी काव्य रचना की साध्यता का विवरण करते हैं । मुनि कुमदेंदु ने अपने ‘सिरि भूवलय’ काव्य की रचना की जिसमें वे 64 ध्वनियों का संकेत देते हैं जिसमें ह्रस्व, दीर्घ और प्लुतों से मिलकर 27 स्वर,
क,च,त,प, जैसे 25 वर्गीय वर्ण
य,र,ल,व, अवर्गीय व्यंजन
बिन्दु अथवा अनुस्वार (०)
विसर्ग अथवा विसर्जनीय (:)
जिह्वा मूलीय (ஃ) (यह तमिल में प्रयोग होता है जो हिन्दी के बिन्दु का प्रतीक है)
उपध्मानीय (::) नाम के चार योगवाह , सभी मिलाकर 64 मूलाक्षरों को 1 से लेकर 64 संख्याओं का संकेत देते हैं । यह क्रम रूप से 27 गुणा 27 = 729 बनते हैं। कवि के निर्देशानुसार ऊपर से नीचे , नीचे से ऊपर अंकों की राह पकड़ कर चले तो भाषा की छंदोबध्द काव्य अथवा एक धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान बोधक शास्त्र कृति लगती है। यह संपूर्ण ग्रंथ ध्वनियों पर और अक्षरों पर आधारित है । अंकों को अक्षरों में परिवर्तित करने के पश्चात ही पढ़ा जा सकता है।
यह ग्रंथ नवमांक पद्धति में रचा गया है।आज के दश्मांश पद्धति में स्पष्ट करना संभव नहीं है क्योंकि दशमांश में पाँच से अधिक को एक समझ कर और पाँच से कम को शून्य समझ कर गणना करते हैं परंतु नवमांक पद्धति में कुछ भी छोड़ा नहीं जा सकता और न ही जोड़ा जा सकता है।इस प्रकार पूर्ण स्पष्टता प्राप्त होने के कारण यह ग्रंथ एक स्पष्ट गणित पद्धति में रचित कन्नड का 64 ध्वन्याक्षर से मिला हुआ सर्वभाषामयी सर्वशास्त्रमयी ग्रंथ है।
718 भाषाओं को कन्न्ड काव्य में संयोजित करने के लिए कुछ बंधों का प्रयोग किया गया है।श्रेणी बंध में आए हुए कन्नड काव्य के पहले अक्षरों को ऊपर से नीचे पढते जाए तो वह प्रकृत काव्य होगा।बीच के 27वें अक्षर से नीचे पढें तो वह संस्कृत काव्य बनेगा। इस रीति से बंधों को अलग-अलग रीतियों से देखा जाए तो विविध बंधों में बहु विधि की भाषाएँ आएँगी, ऐसा कवि कहते हैं ।

राष्ट्रीय प्राच्य संग्रहालय में रखी गयी 1230 चक्रों की माइक्रो फ़िल्म।

कवि बंधों के नाम इस प्रकार कहते हैं – चक्र बंध, हँस बंध, पद्म बंध, शद्ध बंध , नवमांक बंध, वरपद्म बंध, महापद्म, द्वीप,सागर, पल्या, अनुबंध, सरस, शलाका, श्रेणी, अंक, लोक, रोम, कूप, क्रौंच, मयूर, सीमातीत, कामन, पदपद्म, नख, सीमातीत लेख्य बंध, इत्यादि बंधों में काव्यों की रचना की है।

राष्ट्रीय प्राच्य संग्रहालय में रखी गयी 1230 चक्रों की माइक्रो फ़िल्म।

विशेष-

* 718 भाषाओं और 363 मतों के अंवय और विचार ‘सिरि भूवलय’ में दिखाई पडते हैं ,यह कहना ही ग्रंथ की आधुनिकता को दर्शाता है।
• संस्कृत, प्राकृत और द्रविड भाषा लिपि के साथ आधुनिक आर्य भाषा जैसे मराठी, गुजराती, बंगाली, उडिया, बिहारी भाषाओं के साथ साहित्य संवर्धनों में तमिल, तेलगु, मलायालम भाषाओं को और यवन, फारसी, खरोष्ठि, तुर्की देशों की भाषाओं का भी यहाँ उल्लेख मिलता है।
• वीरशैव के उत्त्कर्ष काल तथा मधवाचार्य के काल (1238-1317) अनंतर प्रवर्तित अद्वैत- द्वैत सिध्दांत भेद भी यहाँ प्रस्तावित हैं ।
• कुमुदेंदु अपनी कृति में अनेक जैन क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं ।
कुमुदेंदु द्वारा रचित ‘सिरि भूवलय’ एक मध्य कन्नड भाषा की रचना है।
इस ग्रंथ के सामान्य भाषिक लक्षणों को संग्रहित कर सकते हैं –
• व्यंजनांत शब्द स्वरांत बने हैं।

• “प” कार घटित शब्द “ह” कार रूप में है।
• अपूर्व प्राचीन कन्नड समय के शब्द प्रौढ़ संस्कृत शब्द और उनके समासों का प्रयोग नहीं हुआ है ।
• अन्य देश, नवीन कन्नड काल के शब्द आज के व्यवहार भाषा के चलन में रहने वाले शब्द रूप भी यहाँ-वहाँ दिखई पडते हैं ।
• प्रासाक्षरों के प्रयोग में शिथिलता है ।
• वाक्य रचना में सरलता और सौलभ्यता से दिखाई पडते हैं।रचना की अड़चन और प्रौढ़ता उतनी दिखाई नहीं पड़ती है ।

भाषाओं के लिए कुमुदेंदु ने भाषा और लिपि दोनों बनी हुई स्व भाषा कन्नड को आधार भाषा के रूप में चुना है।यहाँ धवल टीकाओं के सिद्धांत शास्त्र,सार वस्तु विवरण के लिए लेकर, नवमांक पद्धति/ श्रेणीगति/ चक्र बंध विधान में चमत्कारिक रूप से ग्रंथ रचना की गई है। यही ‘सिरि भूवलय’ नाम का 56 अध्यायों का सिद्धांत ग्रंथ है । इस ग्रंथ की भाषाओं के वस्तु विस्तार को निरूपित करने के आज तक जो भी प्रयत्न हुए हैं , इन्हें आगे बढाना अध्ययन कर्त्ताओं के सामर्थ्य पर आधारित है ।
ग्रंथ का कोई भाग यदि नष्ट हो जाता है तो अन्य अध्यायों के चक्रों की सहायता से नष्ट हुए अध्याय को फिर से रचा जा सकता है।ग्रंथ पूर्णतः गणित पर आधारित होने के कारण एक चक्र से उसके पहले के चक्र को प्राप्त करना संभव है ऐसा ग्रंथ कर्त्ता का ही कहना है।

यह केवल कौतूहल जनक ग्रंथ ही नहीं है। साहित्यकारों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों सर्वमताभिमानियों के लिए , इष्ट विषयों को समझने के लिए, विमर्शन करने के लिए , अनु शीलन करने के लिए , उपयुक्त ग्रंथ होने के कारण आधारभूत गणित पद्धतियों की विशेषज्ञों को चर्चा- परिचर्चा करनी चाहिए । ज्ञातव्य ही है कि गणित शास्त्र में स्थान निर्णय (place value) तथा शून्य भारतीयों की ही देन है । शून्य को निर्देशित करता हुआ वृत चिन्ह भारत में ही दृष्टिगत हुआ है। भारतीय गणित की परिभाषानुसार शून्य अर्थात अभाव, तुच्छ असंपूर्ण और दोष आदि चार अर्थ हैं, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो शून्य का अर्थ संपूर्ण माना जाता है। शून्य से गुणा करे या विभागित करें तो भी उसका अनंतत्व व्यक्त होगा, ऐसा गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त , भास्कर , कृष्ण गणेश आदि महानुभावों ने कहा है।
ब्रह्मषि देवरात कहते हैं –
“वेदों के काल से ही चार गुप्त भाषाएं हैं, ऐसा कहा जाता है कि उन भाषाओं को आज तक किसी ने नहीं देखा है न ही किसी को दिखाया गया है। उन भाषाओं के प्रयोग को मैंने भी कहीं नहीं देखा है।’सिरी भूवलय’ का परिचय कराने वाले पंडित येलप्पा शास्त्री जी का मैं चिर ऋणी रहूंगा क्योंकि उन्होंने उन गुप्त भाषाओं का अनुभव कराया ।’सिरि भूवलय’ ग्रंथ में आने वाले अंकों से अक्षर और शब्द , उन्हीं शब्दों से अर्थ ज्ञान, उन्हीं अंकों से गणित, गणित से तत्व ज्ञान आदि वस्तु सिद्ध हैं। यह अंश वेदों में कहा गया वैशिष्ट ही है वरन इसे किसी ने भी देखा और दिखाया नहीं है।”
भूवलय एक अद्भुत और रहस्यमयी ग्रंथ है।असाधारण विद्वता, अद्भुत रचना कौशल और बहुभाषाभिज्ञता का नमूना देखना हो तो भूवलय को पढना चाहिए।जिन विद्वानों ने इसका अवलोकन किया है उनका कहना है कि भूवलय के समकक्ष दूसरा ग्रंथ मानव पुस्तकालय में आज तक उपलब्ध नहीं है।
यलप्पा शास्त्री जी का कहना है कि ज्ञान-विज्ञान का कोई ऐसा विषय नहीं है जिसका विवेचन इस ग्रंथ में न किया गया हो।जीव विज्ञान से लेकर परमाणु वाद तक आयुर्वेद से लेकर लौह विज्ञान तक और आकाश विज्ञान से लेकर ज्योतिष्य शास्त्र तक यह सभी विज्ञानों का आगार है।भौतिक जगत का विवेचन करते हुए कहता है कि परमाणु उसका लघुतम अंश है और परमाणु शून्य ज्योति कणों से बना है, जिसका कोई वास्तविक परिमाण नहीं है इस कारण वृह्त से वृह्त का भी वास्तविक परिमाण नहीं हो सकता।यह सिध्दांत दर्शन के क्षेत्र में जहाँ शंकराचार्य के मायावाद से मिलता है वहीं भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु वाद से मिलता है। इस महा ग्रंथ का जितना भी भाग पढा जा सका है, उससे यह आशा की जा सकती है कि जो प्राचीन ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं और उपलब्ध ग्रंथ में भी जो अपना असली स्वरूप खो चुके हैं, उन्हें फिर से प्राप्त किया जा सकेगा।
कुमुदेंदु की स्व हस्ताक्षर प्रति उपलब्ध नहीं है। सभी विषयों की जानकारी ग्रंथ में से निकालने के लिए आधुनिक शोध से तुलना करने के लिए सतत प्रयत्न करना अभी शेष है। विविध क्षेत्रों से गणितज्ञ और भाषा विद् हाथ मिलाएँ तो अनेक लुप्त होते जा रहे ग्रंथ और भाषाओं को पुनः पहचाना जा सकता है, प्रकाश में लाया जा सकता है।साथ ही उच्चारण ध्वनियों की सहायता से लिपि लिखने की रीति में परिवर्तन हो सकता है। जिससे अनुवाद की समस्या भी कुछ सीमा तक सुलझ सकती है।

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