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कुछ चुभते प्रश्न

चुनावी माहौल में आजकल चाहे हम न्यूज़ पेपर पढ़ें या किसी भी टी.वी.चैनल पर डिबेट देखें,बस हर तरफ आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है।किसी भी तरह से चुनाव में जीत हासिल कर ली जाए बस यही मकसद है और इसे पूरा करने के लिए किसी भी हद को पार करने में कोई संकोच नही किया जा रहा और भाषा की सीमाओं का उल्लंघन इस तरह से हो रहा है कि सुनकर शर्म से हमलोगों के सर झुक जाते हैं लेकिन कहने वालों को कोई शर्म नही आती।हद तो तब हो जाती है जब वोट लेने के लिए एक पार्टी के नेता दूसरी पार्टी के नेता को कम पिछड़ी जाति का और स्वयं को अधिक पिछड़ी जाति का दिखाते हैं और इसी बात की होड़ में अपने पद की गरिमा का भी एहसास इन्हें नही रहता।

एक दिन मैं टी.वी. पर कोई डिबेट सुन रही थी जिसमें एक दल के नेता स्वयं को देशभक्त और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी साबित करने में लगे हुए थे।वह जो पेनलिस्ट थे उनकी आयु मुश्किल से 35-40 के आस-पास थी लेकिन वे बार-बार यह शब्द दोहरा रहे थे कि हमने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी,हमने देश को आज़ाद कराया आदि-आदि।उनके यह शब्द सुनकर मेरे मन में एक प्रश्न आया कि जिस समय और आज़ादी की वे बात कर रहे हैं उस समय तो शायद उनके माता-पिता भी न पैदा हुए होंगे फिर किस लिए इतनी स्वप्रशंसा?इंदिरा गाँधी,राजीव गाँधी,सोनिया गाँधी,राहुल,प्रियंका गाँधी के साथ-साथ जवाहरलाल नेहरु और मोतीलाल नेहरु तक के कार्य और त्याग की बातें होती हैं।ठीक है जवाहरलाल नेहरु हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे और उनके योगदान को नकारा नही जा सकता और इंदिरा गाँधी तथा राजीव गाँधी भी इस देश के प्रधानमंत्री थे तो निश्चित ही उनके योगदान रहे ही होंगे जिनके विषय में चर्चा करके मैं न तो यहाँ कोई विवाद खड़ा करना चाहती हूँ और न ही अब इन बातों का कोई मतलब ही रह जाता है लेकिन आजकल जो एक प्रश्न या कहें आवाज़ आम जनता की भी उठने लगी है वह यह कि हमारा देश एक लोकतान्त्रिक देश है यहाँ पर कोई राजसत्ता नही है कि एक प्रधानमंत्री के बाद उसी परिवार का ही कोई सदस्य प्रधानमंत्री बने लेकिन हम सभी जानते हैं कि बहुत वर्षों तक लगभग 55 साल एक ही परिवार की सत्ता रही है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से।प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या अन्य कोई व्यक्ति इस योग्य नही है?बहुत सारे लोगों ने अपने को साबित किया भी है लेकिन मौके क्यों नही दिए गये?

                  मुझे एक बात जो आजकल बहुत अच्छी लग रही है वह यह कि हमारे बॉलीवुड इंडस्ट्री के लोग कुछ ऐसे ही चुभते विषयों पर फ़िल्में बना कर हमारे दिलों में भी एक चुभन जगा रहे हैं।ऊपर अभी मैंने जिस टी.वी. डिबेट का उल्लेख किया उसी में एक दूसरे पेनलिस्ट ने यह सवाल उठाया कि क्या कारण है कि देश को आज़ाद कराने में सिर्फ कांग्रेस पार्टी के नेताओं का योगदान ही सर्वोपरि माना जाता है जबकि लाला लाजपतराय जिन्होंने अंग्रेजों के डंडे खाए उसके अलावा किसी बड़े कांग्रेसी नेता ने स्वतंत्रता आन्दोलन में न तो जान गँवाई और न ही मार-पीट सही।सच तो यह है कि महात्मा गाँधी ने देश आज़ाद होने के बाद ही यह कह दिया था कि कांग्रेस को ख़त्म कर दिया जाए क्योंकि इस संगठन की स्थापना देश को आज़ादी देने के लिए ही की गई थी यह कोई राजनीतिक दल नही था लेकिन आगे आने वाली पीढ़ियों ने इस संगठन को सिर्फ अपने परिवार की पार्टी बना कर रख दिया।कुछ दिनों पहले मैंने ‘केसरी’ मूवी देखी जो सारागढ़ी में हुए ऐतिहासिक युद्ध की सच्ची कहानी पर बनी है।इसमें हवलदार ईशर सिंह की बहादुरी को दिखाया गया है जो सिक्ख रेजिमेंट की 21 लोगों की एक टुकड़ी के कमांडर थे। सारागढ़ी अब पाकिस्तान के वजीरिस्तान में है,जहाँ साल 1897 में यह युद्ध लड़ा गया था।इसमें 21 जवानों ने दस हज़ार अफ़ग़ान सैनिकों को धूल चटा दी थी।यद्यपि यह युद्ध अफगानों के ख़िलाफ़ भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ से लड़ा था लेकिन इसमें बहादुर सैनिकों के हौसले देखकर अंग्रेजों की हिम्मत डगमगा तो गई थी।क्या कारण है कि आज तक हमने इन सैनिकों की बहादुरी के किस्से कभी नही पढ़े?हमारी किसी भी कोर्स की किताब में आजतक यह बहादुरी का कारनामा नही बताया गया।अकबर महान था,जहाँगीर की न्यायप्रियता बड़ी प्रसिद्ध थी आदि आदि बातें तो हम बचपन से ही पढ़ते रहे या फिर कुछ खास लोगों के बारे में जिनकी सत्ता आज़ादी के बाद भी 50 वर्षों से ज़्यादा रही,उन्ही का महिमामंडन होता रहा लेकिन 1857 में मंगल पण्डे(तात्या टोपे)जिन्होंने शायद पहली बार स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत की उनका भी ज़िक्र कोर्स की किताबों में बहुत ही कम हुआ है।

‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’ यह पंक्तियाँ हममें से शायद सबने ही सुनी होंगी लेकिन एक बहुत बड़ा तथाकथित मॉडर्न वर्ग है जो इस तरह के लोगों या बातों के विषय में चर्चा ही नही करना चाहता इससे उनकी आधुनिकता पर आंच आती है।हमारी पीढ़ी तक तो फिर भी हमने इन लोगों और इनकी बहादुरी को संजोकर रखने की कोशिश की लेकिन मैं देखती हूँ कि आज के बच्चे इन बातों से कोसों दूर होते जा रहे हैं।उनके माता-पिता भी इसी में अपना बड़प्पन समझते है कि बच्चा अंग्रेज बनता जा रहा है जबकि ज़रूरत ज्ञान अर्जित करने की है न कि भाषा का कोई बंधन होना चाहिए।अभी ‘मणिकर्णिका’ मूवी आई उसमे भी झाँसी की रानी की बहादुरी और निडरता को देख कर सीना चौड़ा हो जाता है लेकिन मैंने देखा कि इस पीढ़ी के बहुत से बच्चे ‘मणिकर्णिका’ या ‘केसरी’ मूवी को देखना नही पसंद कर रहे क्योंकि उनको बॉलीवुड से ज़्यादा हॉलीवुड की फिल्में पसंद आती हैं और बहुत से माता-पिता भी अपने बच्चों को अपनी संस्कृति की तरफ झुकने के लिए प्रेरित ही नही करना चाहते क्योंकि बच्चे के हॉलीवुड फिल्मों से प्रेम को वे स्टेटस सिम्बल समझते हैं।अरे हॉलीवुड या बॉलीवुड दोनों ही जगह अच्छी फिल्में बनती हैं तो जो अपने देश की संस्कृति या कला साहित्य और सभ्यता का चित्रांकन करती हो उसको देखने में कोई छोटापन नही होना चाहिए।

                      अभी लगभग एक हफ्ते पहले हमने ‘ताशकंद फाइल्स’ मूवी देखी जिसमे हमारे देश के दूसरे प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की मौत से सम्बंधित कुछ ऐसे प्रश्न उठाये गये हैं जो हमारी पीढ़ी तो शायद नही जानती लेकिन मेरे माता-पिता जिन्होंने 1962 में जब शास्त्री जी का देहावसान हुआ था तो तब भी ऐसी बातों को सुना था और उन लोगों ने भी मुझे यह बताया कि उस समय क्योंकि इलेक्ट्रोनिक मीडिया ज़्यादा था नही तो बातें बहुत ज़्यादा आम लोगों तक नही पहुँच सकीं थीं।सुगबुगाहट लोगों में खूब हुई थी।वास्तव में एक इतने बड़े देश का प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर जाए और वहीँ पर उसकी मृत्यु हो जाए और कारण भी शंका के घेरे में हो तो अचंभित करने वाली परिस्थितियां तो बन ही जाती हैं।क्यों नही पोस्टमार्टम कराया गया जबकि उनके शरीर का रंग भी नीला पड़ चुका था?इन सब बातों को जाने भी दिया जाए तो सच में हैरानी होती है कि शास्त्री जी जो इस देश के दूसरे प्रधानमंत्री थे, उनके जन्मदिन 2 अक्टूबर को कितने लोग याद रखते हैं?मैं सच में अपनी बात करती हूँ कि मुझे पता तो था बचपन से ही कि 2 अक्टूबर शास्त्री जी का भी जन्म दिन है लेकिन मुझे भी सालों-साल कभी उस दिन यह बात ध्यान ही नही आई।‘ताशकंद फाइल्स’ मूवी जब मैंने देखी तो उसमे एक पात्र के द्वारा यह कहलवाया गया है कि उसके बच्चे को नही पता था कि शास्त्री जी का जन्म दिवस भी 2 अक्टूबर को ही होता है।वास्तव में मुझे यह स्वीकारने में कोई संकोच नही है कि इधर कुछ बॉलीवुड फिल्मों ने ऐसी दिल में चुभन दी है जिसने ऐसे कई प्रश्न खड़े किये हैं जिनके उत्तर कभी मिलेंगे या नही कहना मुश्किल है।

                    ‘ताशकंद फाइल्स’फिल्म का अंत भी मेरे दिल को छू गया क्योंकि अंत में एक नेता के मुंह से यह कहलवाया गया कि इस तरह की बातों को जो अब उठाया भी जा रहा है वह चुनावों में जीत हासिल करने के लिए ही।कभी-कभी वास्तव में लगता है कि सरदार बल्लभ भाई पटेल,लालबहादुर शास्त्री,लाला लाजपतराय या पंडित मदनमोहन मालवीय जैसी महान हस्तियों को भी अपनी राजनीतिक हसरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

                  यह कुछ ऐसी बातें थीं जिन्होंने कुछ दिनों से मेरे दिल में चुभन दी थी इसलिए आज आपलोगों के साथ मैंने उन्हें साझा कर लिया।इन बातों में शायद ही कोई ऐसी बात हो जो आपलोग न जानते हों या कोई बहुत नई चीज़ हो लेकिन बात महसूस करने की है जो कभी-कभी दिल को लग जाती है और मेरा सोचना है कि यह बातें दिल को लगनी भी चाहियें क्योंकि हममे से सभी ने पीढ़ियाँ गुज़र गईं,गलत को सही मान कर जीवन बिता दिया अब अगर सच सामने आ रहे हैं तो एक आम नागरिक की हैसियत से यह हमारा अधिकार भी है और कर्तव्य भी कि हम इस सत्य का सामना करें और इसे आगे और लोगों तक भी पंहुचाएं।इन बातों को किसी भी राजनीतिक दल की विरासत अब न बनने दें।अभी तक कुछ लोग हमें अलग ही इतिहास समझाते रहे जिसके कारण हमारी आँखों पर पर्दा ही डला रहा लेकिन अब जब सच सामने आ रहा है तो कुछ और लोग इसे अपनी राजनीति न बना लें यह हमें ध्यान रखना होगा।       

5 thoughts on “कुछ चुभते प्रश्न

  1. बहुत ही सामयिक लेख।वाक़ई वर्तमान राजनीति अत्यन्त शोचनीय है तथा चुभन देती है।हमारी भारतीय संस्कृति वैदिक संस्कृति है।वैदिक राजनीति में सदाचार और अध्यात्म को उच्च स्थान दिया गया है।वस्तुतः वेदकालीन राजनीतिक विचारधारा वर्तमान विश्व की राजनीतिक समस्याओं का समाधान है।

  2. सीधी बात।सुंदर भाषा।साफ़गोई और बेबाक़ी।
    सच है कि इतिहास लेखन कांग्रेस के सत्ता स्वार्थ की दृष्टि से की गई।इसमें भगत सिंह,सुभाष, अम्बेडकर, लोहिया जैसे कई सपूतों की अनदेखी की गई।लेकिन फ्रांस और अमेरिका की क्रांति के बरक्स भारत के आजादी की लड़ाई जिन मूल्यों के साथ लड़ी गई,वह अभूतपूर्व है।इसका श्रेय गांधी औऱ कांग्रेस को जाता है।
    यह डिस्कोर्स और डिबेट जो पैदा कर रहें हैं वो भारत छोड़ो आंदोलन में नदारद थें।ग्राम्शी इसे ही हैजोमॉनी कहता है।
    बहरहाल रोचक और नई दृष्टि।
    साधुवाद और बधाई।

    1. धन्यवाद भाई।आपलोगों के सुझाव मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं।

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