किन्नर, वह समुदाय, जिसे शायद समाज अपना हिस्सा मानता ही नहीं है। पता नहीं, हम क्यों भूल जाते हैं कि किन्नर, हमारे इतिहास की रचना के एक प्रमुख स्तंभ रहे हैं। फिर वह चाहे महाभारत रही हो या कोई और कथा। राजघरानों में तो किन्नर कला, शिक्षा, ज्ञान एवं दर्शन के प्रतीक माने जाते थे। वह कला एवं ज्ञान के ध्वजवाहक आज कहां है? युद्ध के रणनीतिकार आज कहां है? गाहे-बगाहे, अब वे कई चौराहों पर तो दिख जाते हैं। या जन्म एवं शादी पर बधाई गाते भी दिख जाते हैं, परंतु इसके बाद, कौन सी गली उन्हें अपने अंक में समेट लेती है, यह कोई नहीं जानता। सरकारी सुविधा तो छोड़िए, हम इन्हें मानव की श्रेणी में ही गिनना भूल जाते हैं। किन्नर, हमारे समाज एवं इतिहास का वह अध्याय हैं, जो, जाने कब से बंद पड़ा है। आइए, इसे खोलें। आइए, कोशिश करें, इस दबी प्रतिभा की घुटन को महसूस करने की। पता नहीं क्यों, हमने एक खुशबू को बदबूदार डिब्बे में बंद कर दिया है।हमें आभार व्यक्त करना चाहिए आदरणीय डॉ शीला डागा जी का, जिन्होंने खुशबू को अर्थ दिए, शब्द दिए, पहचान दी एवं इसे एक पुस्तक “किन्नर गाथा” का रूप दिया।
यह सब शायद यूं ही नहीं हो गया।आदरणीय डॉ शीला डागा जी, जिनकी शिक्षा का स्तंभ गुरुकुल रहा है। अतः उनका व्यक्तित्व संस्कृति एवं अध्यात्म की मिट्टी से गढा गया है। ऐसे व्यक्तित्व से ही उम्मीद की जा सकती थी, कि वह हमारी याददाश्त के उस तार को छेड़ दें, जिसकी झंकार हम भूल चुके हैं। आइए जानें, सनातन के उस पृष्ठ को, जिसे स्वरूप दिया है, संस्कृति की आवाज ने।
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