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स्त्री त्रासदी का यथार्थ रूप भाग 1

स्त्री त्रासदी के यथार्थ रूप को शब्द देने वाली लेखिका ममता कालिया जी की किताब ‘बोलने वाली औरत’ की कुछ पंक्तियाँ जो मेरे दिल में चुभन का एहसास दे गईं वह मैं सबसे पहले आपके साथ साझा करना चाहूंगी,

“प्रेम और विवाह दो अलग-अलग संसार हैं।एक में भावना और दूसरे में व्यवहार की ज़रूरत होती है।दुनिया भर में विवाहित औरतों का केवल एक स्वरुप होता है।उन्हें सहमति प्रधान जीवन जीना होता है।अपने घर की कारा में वे क़ैद रहती हैं।हर एक की दिनचर्या में अपनी-अपनी तरह की समरसता रहती है।हरेक के चेहरे पर अपनी-अपनी तरह की ऊब।हर घर का एक ढर्रा है,जिसमें आपको फिट होना ही होना है।कुछ औरतें इस ऊब पर श्रृंगार का मुलम्मा चढ़ा लेती हैं पर उनके श्रृंगार में भी एकरसता होती है।”

चर्चित लेखिका ममता कालिया जी को उनके उपन्यास ‘दुक्खम-सुक्खम’ के लिए साल 2017 के प्रतिष्ठित व्यास सम्मान से नवाजा गया है और वे किसी परिचय की मोहताज नही हैं परन्तु यहाँ मैं उनके लेखन के विषय में अभी चर्चा न करके उनके विचार जो उन्होंने महिलाओं के लिए व्यक्त किये हैं उनपर प्रकाश डालना चाहूंगी क्योंकि महिलाओं के बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है लेकिन स्थितियां जस की तस रहती हैं और उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम सच्चाई से मुंह छुपाते हैं और यथार्थ की जगह आदर्श हम पर हावी रहता है।तभी तो कोई भी बात हो तो सीता सावित्री से लेकर मदर टेरेसा,इंदिरा गाँधी और कल्पना चावला तक के उदाहरण प्रस्तुत कर दिए जाते हैं जो निसंदेह अनुकरणीय हैं लेकिन एक आम औरत के यथार्थ रूप का चित्रण ज़रा कम ही किया जाता है लेकिन यह एक शुभ संकेत है कि महिलाएं अपनी पीड़ा,संघर्षों और अनुभवों के बारे में आजकल खुलकर लिख रही हैं।

एक ऐसी ही अनजानी सी लेकिन पढ़ कर आपको शायद कुछ जानी-पहचानी सी लगे  महिला की तस्वीर प्रस्तुत करना चाहूंगी जिसे पढ़कर आप को यह सोचना होगा कि क्या यह इक्कीसवीं सदी की नारी है?कुछ दिनों पहले मेरी सहेली की तबियत ख़राब होने पर मैं उसके साथ शहर के एक जाने-माने निजी अस्पताल में गई।रिसेप्शन पर बैठ कर हम डाक्टर को दिखाने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे और वहां काफी लोग थे क्योंकि जैसा मैंने लिखा कि प्रतिष्ठित और काफी बड़ा अस्पताल होने के साथ ही वहां कई बड़े-बड़े डाक्टर बैठते हैं इसलिए मरीज़ काफी संख्या में होते हैं।तभी अचानक हमने क्या देखा कि इतनी भीड़-भाड़ के बीच में ही एक 25-26 साल की लड़की को एक लड़का ज़ोर-ज़ोर से तीन-चार थप्पड़ लगाकर भाग गया।वहां बैठे सभी लोग हतप्रभ थे लेकिन कोई भी एक व्यक्ति उठकर उधर जाने का साहस नही कर सका।उस दिन मुझे लगा कि वास्तव में सब कितने स्वार्थी और निर्लिप्त हो गये हैं।किसी का किसी से कोई लेना-देना ही नही है।लेकिन तभी मेरी सहेली और मैं उस तरफ बढ़े और मेरी सहेली जो कि पेशे से वरिष्ठ वकील भी है,उसने चिल्लाकर उस लड़के को बुलाया और दौड़कर उस ओर लपकी।उसे इस तरह देखकर वह लड़का शायद कुछ डर गया और भागने की हिम्मत न करके उस तरफ आ गया।मेरी सहेली ने उस लड़की से पूछा कि यह कौन है जिसने तुम्हे इस तरह सार्वजनिक जगह पर मारने की हिम्मत की।पहले तो वह लड़की एक दम सुन्न होकर खड़ी रही कुछ नही बोली लेकिन जब मेरी सहेली ने उस लड़के को डांटा और उस लड़की के प्रति संवेदना व्यक्त की तो वह बेचारी फट पड़ी और कहने लगी कि “यह मेरा पति है और मेरी शादी को अभी एक साल भी पूरा नही हुआ है लेकिन ज़रा सी बात पर यह मेरे को कहीं भी पब्लिक प्लेस में मारने लगता है।” उसकी बात पर हम लोग एकदम चौंक गये।वह लड़की किसी और शहर से अपना इलाज कराने लखनऊ आई थी और उसके माता-पिता इलाज करा रहे थे जो बात लड़के को नागवार गुजर रही थी क्योंकि इसमें उसको अपनी हीनता महसूस हो रही थी।लड़का और उसके घर वाले तो बस यह चाहते थे कि लड़की का बाप एक मोटी रकम दे दे और फिर वे लोग जैसा चाहें उस लड़की के साथ करें।लड़की अपनी माँ के साथ आई थी और उनके साथ सिर्फ ड्राईवर था इसलिए दोनों बेचारी सहम गईं।बातचीत से पता चला कि लड़की पढ़ी-लिखी थी और कुछ समय पहले ही उसका सरकारी स्कूल में अध्यापिका के लिए चयन भी हो गया था।इन सब बातों को जानकर हमने अस्पताल प्रशासन से कहा कि तुरंत पुलिस को बुलाया जाए और उस लड़के को पुलिस के हवाले कराया जाए।मेरी सहेली के साहस के कारण वह लड़का भी चुपचाप डर कर बैठ गया और अपनी पत्नी से माफ़ी मांगने लगा लेकिन उस लड़की का दर्द तो सिर्फ वह ही जान सकती थी जिसने शादी के कुछ महीनों में ही पति का ऐसा रूप देखा इसलिए वह पति को झिड़क कर दूर जा कर बैठ गई।हमलोग भी पुलिस के आने का इंतज़ार करते रहे इतने में मेरी सहेली को डाक्टर को दिखाने का नम्बर आ गया और हम दोनों डाक्टर के चैम्बर में चले गये।वहां अपने इलाज के बारे में बात करने के बाद मेरी सहेली ने डाक्टर से इस घटना के बारे में कहा कि “आपने देखा कैसे एक लड़के ने इस तरह सबके सामने उस लड़की को मारा जो कि उसकी पत्नी है।” इस पर इतने वरिष्ठ डाक्टर(नाम न तो मैं अस्पताल का लिख सकती हूँ न डाक्टर का)जिनकी उम्र लगभग 70 वर्ष की होगी उनका जवाब कुछ ऐसे था, “मैंने सब कुछ अपने चैम्बर से देखा और मैं सुबह जब राउंड पर जा रहा था तो भी मैंने देखा यह लड़की अपने पति को डांट रही थी।” हमलोग इतने वृद्ध और पढ़े-लिखे डाक्टर के विचारों से अवाक् से हो गये और हमारे मुंह से निकल गया “मतलब लड़की पति से कुछ बहस रही थी तो सबके बीच वह उसे ऐसे मारने लग जाए इसमें कुछ गलत नही है?” इस पर हमें ऐसा लगा कि डाक्टर को भी लड़की का ही दोष नज़र आ रहा था।वाह रे पुरुषवादी सोच।लड़की अगर अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का हल्का सा विरोध भी करे तो उसे सबके सामने पति के थप्पड़ खाने होंगे।

बाहर आने पर हमने देखा कि वह लड़का तो वहां से गायब था और माँ-बेटी बेचारी सहमी बैठी थीं और कहीं पुलिस का कोई अता-पता नहीं था।हमने अस्पताल प्रशासन से फिर कहा कि आपने पुलिस को नही ख़बर की इसपर हमें टालने की कोशिश की गई और ऐसा आभास हुआ कि अस्पताल भी अपने नाम को ख़राब नही करेगा कि वहां किसी घटना पर पुलिस आई है इसलिए शायद पुलिस को ख़बर ही नही की गई थी।लेकिन मेरी सहेली बेचारी अपनी तबियत भी भूलकर कहने लगी कि मैं खुद पुलिस को बुलाऊंगी और इस लड़की को न्याय दिलवाउंगी।पर हमें पता था कि वहां कुछ भी होना नही था क्योंकि अपताल के किसी भी बन्दे ने उस लड़की के पक्ष में गवाही ही नही देनी थी क्योंकि जब पढ़े लिखे इतने बुजुर्ग डाक्टर की ऐसी मानसिकता थी तो फिर और किसी से क्या अपेक्षा की जा सकती थी?हमलोग उन माँ-बेटी को सांत्वना देकर तथा उस लड़की की माँ को यह समझाकर कि अब वे लोग लड़की को सोच समझ कर ऐसे पागल ससुराल वालों के पास भेजें, अपने घर आ गये।लेकिन कितने दिनों तक इस घटना ने हमारे ऊपर अपना असर रखा।हम लोग यह सोचते रहते कि पता नही उस लड़की बेचारी का क्या हुआ?उस दिन वह रो-रो कर कह रही थी कि मेरी तो सरकारी नौकरी लग गई है और मैं वहां ज्वाइन कर लूंगी और अपने पैरों पर खड़ी होउंगी लेकिन हम क्या जानें कि उसे नौकरी करने दी जाएगी या समझा बुझाकर माता-पिता भी ससुराल ही भेज देंगे।जैसा समाज में आमतौर पर होता है।

इस एक घटना को पढ़ कर शायद आपको लगा होगा कि एक छोटी सी बात को मैंने काफी शब्द दे दिए हैं लेकिन इस छोटी सी घटना में ही पूरे समाज का एक विकृत रूप छुपा बैठा है जिसे हम सबके शब्द ही शायद बाहर ला सकें।यह कोई एक घटना नही बल्कि एक प्रतीक है और ऐसी घटनाएँ आए दिन होती हैं।अभी मैं समाचारपत्र पढ़ रही थी तो उसमे ही मैंने एक इसी से मिलती जुलती घटना पढ़ी तभी मुझे उस दिन की घटना याद आ गई और मैंने आपको बताने के लिए उसे लिखना शुरू कर दिया परन्तु यहाँ प्रश्न इस घटना की चर्चा करने का नही है।प्रश्न यहाँ पर यह है कि ऐसा क्यों होता है?अभी कुछ दिनों पहले वरिष्ठ नेता नारायण दत्त तिवारी जी के पुत्र की हत्या हो गई और हत्या का इलज़ाम उसकी पत्नी पर लगा।अब सच्चाई क्या है और उस औरत ने अपने ही पति की हत्या क्यों की जिससे उसने प्रेम विवाह किया था और अभी शादी को एक साल भी नही हुआ था।यह सब घटनाएँ क्या यह सोचने पर मजबूर नही करती कि क्यों मात्र एक वर्ष के भीतर ही शादी के बंधन इस तरह तार-तार हो रहे हैं?जब औरतें ऐसा क़दम उठाती हैं तो फिर कहीं पर यह आवाज़ भी उठती है कि ‘एक्शन का ही रिएक्शन’ होता है और औरतों को सदियों तक इतना दबाया गया है कि अब वे ज़रा सा भी अत्याचार सहन नही कर पातीं और पति की ही हत्या कर बैठती हैं।मैं दंग हूँ ऐसी सोच पर जो किसी की हत्या करने को भी जस्टिफाई करे।पर सच्चाई यह भी है कि समाज में ऐसा खूब हो रहा है।मैं देखती हूँ कि बड़े-बड़े पदों पर बैठी हुई महिलाएं जो वास्तव में पूरी तरह आत्म-निर्भर हो सकती हैं और ऐसे रिश्तों को छोड़कर अपना जीवन अकेले भी बिता सकती हैं,न जाने किस मजबूरी के कारण अपना इतना शोषण करवाती हैं और फिर कहीं कहीं ऐसा शोषण और दमन ही फूट पड़ता है और कई अनचाही और दुखद घटनाएँ घटित हो जाती हैं।

इस विषय पर अभी मुझे लगता है कि मेरे पास और भी बहुत कुछ है लिखने को लेकिन मुझे अपने पाठकों का भी ध्यान रखना है कि कहीं वे बहुत लंबे लेख से ऊब न जाएँ इसलिए मैं दो भाग मे यह लेख दूँगी।अभी आपने इसका पहला भाग पढ़ा और दूसरा भाग मैं अगली पोस्ट मे प्रकाशित करूंगी।

3 thoughts on “स्त्री त्रासदी का यथार्थ रूप भाग 1

  1. उत्कृष्ट लेख है पुरुषवादी परंपरा का अच्छा उदाहरण. सदियो से यही चला आया है दूसरे भाग का इंतजार रहेगा

    1. धन्यवाद।जल्द दूसरा भाग प्रकाशित होगा।

  2. ऐसी सोच और कार्य शर्मनाक हैं लेकिन आपने ठीक लिखा कि ऐसा भी समाज में देखने को मिल ही जाता है।

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