– अजय “आवारा”
साधारणतया, किसी राष्ट्र के निर्माण की पृष्ठभूमि, संस्कृति एवं आस्था पर आधारित होती है। एक विशेष तरह की संस्कृति एवं एक विशेष आस्था के केंद्र के इर्द-गिर्द ही उस राष्ट्र की धुरी घूमती है। जो आगे चलकर उस राष्ट्र की पहचान के रूप में स्थापित होती है परंतु, यह सिद्धांत हमारे देश पर लागू नहीं होता। भारत अनेक संस्कृतियों का समीकरण है, या यूं कहें कि अनेक परंपराओं एवं आस्थाओं की संधि का नाम है भारत वर्ष।आस्था के जितने केंद्र हिंदुस्तान में पाए जाते हैं, उतने कहीं और नहीं पाए जाते। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत की पहचान अपने आप में विशिष्ट है। कोई और राष्ट्र तो इतनी आस्थाओं की कल्पना भी नहीं कर सकता। हम बड़े गर्व से कहते हैं, कि विविधता ही हमारी विशेषता है। परंतु,अब लगता है कि यही विशेषता शायद हमारी कमजोरी बनती जा रही है।
ऐसा क्यों है कि अपनी-अपनी आस्था पर विश्वास करने वाले लोग, अब एक दूसरे को नीचा दिखाने पर जुट गए हैं। आप धर्म या आस्था की बात तो छोड़िए, विभिन्न वर्गों के लोग भी एक दूसरे को नीचा दिखाने की ताक में रहते हैं। इस तरह हम स्वयं के मानवीय मूल्यों का ह्रास कर रहे हैं।हम यह भी कह सकते हैं कि हम राष्ट्र के भीतर ही, एक दूसरे से इस स्पर्धा में उलझ गए हैं। हर समूह अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने की दौड़ में भागा जा रहा है। स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना गलत तो नहीं है पर यह गलत तब हो जाता है, जब हम इस कोशिश में दूसरे को कमतर आंकने की होड़ में लग जाते हैं। फिर चाहे वह धार्मिक आस्था की बात हो, या प्रादेशिक संप्रभुता की। वह आपकी भाषा की पहचान हो, या सांस्कृतिक विशेषता। या फिर यह कोई परंपरा अथवा रीत ही क्यों न हो ? हम क्यों भूल जाते हैं, कि धर्म आस्था है और संस्कृति हमारी पहचान। हमारे देश में धार्मिक उन्माद का टकराव आज चरम पर है। इस चरमपंथ का उन्माद यहां तक पहुंच गया है कि, एक विशेष आस्था के लोग, दूसरी आस्था की प्रमाणिकता को भी नकार रहे हैं। या यूं कहें कि हर कोई अपनी आस्था के प्रेरणा बिंदु से दूर हो गया है। लगता है, अब धर्म आस्था न होकर, व्यक्तिगत श्रेष्ठता साबित करने का यंत्र बन गया है। जब हम आस्था एवं धार्मिक श्रेष्ठता होने की बात करते हैं तो, स्वाभाविक रूप से हमें अन्य समुदाय एवं उनके मूल्यों का भी सम्मान करना होता है। परंतु आज किसी दूसरे वर्ग विशेष एवं आस्था का सम्मान करना अपने आप को पिछड़ने जैसा माना जाने लगा है। स्वयं को साबित करने की होड़ में हम वास्तविकता से परे होते जा रहे हैं और वास्तविकता से परे जाने का अर्थ है, हम अपनी संस्कृति को एक कोने में पटक चुके हैं। वस्तुत: आस्था एवं संस्कृति की पहचान दोनों अलग-अलग विषय हैं। आस्था हमारी जीवन पद्धति है जब कि संस्कृति हमारी पहचान है। फिर क्यों हम अपनी जीवन पद्धति में टकराव पैदा करके अपनी पहचान से दूर होने पर आमादा हैं? अगर हम एक भारतीय से सवाल पूछें कि उसके अंदर का भारतीय कहां है? तो शायद वह जवाब न दे पाए। हम, हर भारतीय में एक आस्था का केंद्र, एक प्रादेशिक केंद्र, क्षेत्रीय श्रेष्ठता एवं परंपरा का केंद्र तो देख सकते हैं, परंतु एक भारतीय में भारतीय को पाना लगभग असंभव सा हो रहा है। क्या हमारे भारतीयता की परंपरा लुप्त होती जा रही है? क्या यह आस्था का विषय, हमारी सांस्कृतिक पहचान को लील लेगा? आज हमारी संस्कृति लहुलुहान पसरी पड़ी है और हम इसका उपचार करने के बजाय इसे और गोदे जा रहे हैं। वास्तव में संस्कृति हमारी मां है तो आस्था हमारा पिता है। संस्कृति ने हमें पहचान दी है तो, आस्था ने मार्गदर्शन। तो क्या एक मार्गदर्शक के कारण हम अपनी सांस्कृतिक पहचान यानी अपनी मां को घायल कर खुश हो पाएंगे? क्या जाने अनजाने हम अपनी मां के ही टुकड़े तो नहीं किये जा रहे हैं ? पता नहीं क्यों, हम अपनी-अपनी आस्थाओं के मूल भाव से मुंह मोड़ चुके हैं। हम अपने आस्था के केंद्र की आत्मा को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? किस आस्था में मानवीय अस्तित्व को मिटाने पर अमल लिखा है? अगर यही आस्था का केंद्र है? तो मुझे लगता है, हमें इस पर फिर से विचार करना चाहिए। क्यों न हम आस्था एवं संस्कृति को साथ खड़ा करके उनका सम्मान करें , न कि इन्हें टकराव का बिंदु बनाएं।