जिस समाज में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’,या ‘औरत तो दुर्गा है’ और ऐसी ही बहुत-सी उपमाओं से नारी को सम्मान देने की कोशिश की जाती है और ‘बेटी’ से लेकर ‘माँ’ तक हर रूप में स्त्री को सम्मान देने की संस्कृति रही है,वहां पता ही नहीं चला कि कब और कैसे महिलाएं उपहास की पात्र बन गईं?पूरी दुनिया में आज आधी आबादी की सफलता के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं,फिर भी हम एक जुमला नहीं छोड़ पाए हैं और वह है ‘औरतों वाली आदत’ यानि यह कहकर हम औरतों को ‘असभ्यता’ के साथ जोड़ रहे हैं।आश्चर्य होता है कि क्यों आज समाज में और खास कर मीडिया में यह आधा चेहरा इतना अभद्र होता जा रहा है या मजाक की वस्तु बनता जा रहा है?
आजकल बहुत सारे विज्ञापनों में मैं देखती हूँ कि महिलाओं की छवि शारीरिक अश्लीलता से भी कहीं ज़्यादा मानसिक अश्लीलता के रूप में पेश की जाती है।जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलने वाली स्त्री का ऐसा चित्रण देखकर तरस आती है इसे बनाने वालों की सोच पर परन्तु विडंबना यह है कि हम देखते और प्रभावित भी इन्हीं विज्ञापनों से ही होते हैं तभी तो यह सब चल रहा है।क्योंकि बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है।आजकल टी.वी.पर कई कॉमेडी शो ऐसे आ रहे हैं जिसमें स्त्रियों के वेश में पुरुष नौटंकी करते नज़र आते है।कॉमेडी के नाम पर पुरुषों द्वारा स्त्री का ऐसा भौंडा प्रदर्शन और भावनाओं की अभद्र प्रस्तुति भी हमारा मनोरंजन कर रही है और हम यही सब पूरे परिवार के साथ बैठकर हंसी से लोट-पोट होकर देखते हैं और हमारे तर्क यह होते हैं कि क्या हो गया थोड़ा-सा हंसने-हंसाने के लिए यह ‘सब’ चलता है लेकिन इसी ‘सब’ में आज औरत मजाक की वस्तु बनती जा रही है।हलकी-फुलकी चुहलबाजी से शुरू हुई मजाक की प्रवृत्ति आज बहुत ही तकलीफदेह मुकाम पर आ पहुंची है जहाँ औरत के ऐसे रूप को देखकर हम ठहाके लगा रहे हैं।किसी की छवि को नुकसान पहुंचाकर यदि हम हंसी-ठट्ठा कर रहे हैं तो हमें इन बातों से बचना होगा।आज एक ऐसे समाज की आवश्यकता है जो खुलकर इन्हें अस्वीकार करे।यह सब जो बढ़ रहा है तो इसका श्रेय हमारे समाज को ही जाता है।महिलाएं चुटकुलों का एक बहुत बड़ा पात्र सदा से रहीं हैं।समाज को अपना मन बनाना होगा इन चीज़ों को नकारने के लिए।बाज़ार की संस्कृति में एक सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ ऐसी कोई भी चीज़ नहीं टिक सकती जिसकी मांग न हो।महिलाओं की गरिमा गिराकर हंसी-मजाक पैदा करने वाले कार्यक्रम यदि हम देखते हैं और उन्हें लोकप्रिय बनाते हैं तो यह हमारे समाज का दोष है।दर्शक के रूप में हमें उन कार्यक्रमों को देखना बंद कर देना चाहिए जो महिलाओं पर हँसते हैं।यह हमें तय करना है कि ऐसा मनोरंजन हमें नहीं चाहिए।
एक बात और जो मुझे तो बहुत चुभन देती है कि औरतों के सौन्दर्य प्रसाधन भी लज्जा या कमजोरी का प्रतीक बनाकर पेश किये जाते हैं,उससे औरतों का एक वर्ग शायद यह सोचने पर मजबूर हो जाता होगा कि क्या एक सक्षम औरत को ‘चूड़ी’,’बिंदी’ या अपनी पारम्परिक वेशभूषा का परित्याग कर देना चाहिए?आखिर महिलाओं के प्रति समाज का यह नज़रिया क्यों है?क्यों सब खामोश हैं?हालाँकि आज जब मैं इन पंक्तियों को लिख रही हूँ तो एक औरत की छवि अचानक ही मेरे सामने आ गई है और वे हैं श्रीमती सुषमा स्वराज जी,जिनका अभी कुछ दिनों पहले ही निधन हुआ है।दिल्ली की मुख्य मंत्री,केन्द्रीय मंत्री और लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता रहीं भारतीय जनता पार्टी की यह नेत्री न जाने कितने पदों को सुशोभित कर चुकीं हैं और उनका नाम आते ही एक ऐसी सक्षम महिला का रूप हमारे सामने साकार हो जाता है जिसे हमने हमेशा साड़ी,बिंदी,पूरी मांग भरकर सिंदूर और चूड़ियों में ही देखा लेकिन उनका व्यक्तित्व ऐसा था जो सामने आए और बोलना शुरू करे तो अच्छे-अच्छे लोगों की बोलती बंद करा दे।संसद में जब वे नेता प्रतिपक्ष रहीं तो हम सब उनकी ताकत देख चुके हैं और विदेश मंत्री के तौर पर भी वे कितनी ताकतवर नेता थीं यह मुझे बताने की ज़रूरत ही नहीं है।इसका मतलब यदि आप स्वयं अपने काम और ज़िम्मेदारियों के प्रति समर्पित और ईमानदार हैं तो कोई भी आपकी छवि को गिरा नहीं सकता।ऐसे में तो एक बात यह भी लगती है कि आज महिलाएं शायद अपनी स्थिति की ज़िम्मेदार स्वयं ज़्यादा हैं क्योंकि महिलाओं का एक छोटा-सा वर्ग शायद ऐसा भी है जो त्वरित सफलता प्राप्त करने के लिए ‘कुछ भी’ करने को तैयार रहता है जिससे औरतों की छवि समाज में धूमिल होती है।एक मुहावरा बड़ा आम है कि ‘तुम कुछ नहीं कर सकते तो चूड़ियाँ पहन लो’ या ‘तुमने चूड़ियाँ पहन रखीं हैं जो यह नहीं कर सकते’ इसका मतलब तो यही हुआ न कि चूड़ी बिंदी पहनने वाली औरत कमज़ोर है या बेबस-मजबूर है।चूड़ी-बिंदी को ‘कमजोरी’ का प्रतीक बना कर पेश किया जाता है।इससे बहुत ही नकारात्मक सन्देश जाता है।आज जब हर क्षेत्र में औरतें पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल रहीं हैं और कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं रहा जहाँ उन्होंने अपना योगदान न दिया हो ऐसे में ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,आँचल में है दूध और आँखों में पानी’ वाली छवि पेश करना कहाँ तक उचित है?लेकिन मैंने देखा है कि महिलाएं भी इन जुमलों का प्रयोग खुल कर करती हैं और यदि किसी भी पुरुष की कमजोरी या कायरता का उल्लेख करना होता है तो बड़े आराम से कहेंगी कि ‘अरे वह क्या कर पाएगा उसने तो हाथों में चूड़ियाँ पहन रखीं हैं।’ यह सोच या प्रवृत्ति ही महिलाओं को समाज में कमजोर और उपहास का पात्र बनाती है।
महिलाओं और बच्चों के बिना समाज की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती।फिर भी समाज में हो रहे अपराधों और अन्याय के सबसे ज़्यादा शिकार महिलाएं और बच्चे ही हैं।बाज़ार जिस तरह इनका इस्तेमाल कर सामाजिक सोच को भ्रष्ट कर रहा है वह दंडनीय अपराध है।यदि हम ईमानदारी से देखें तो बहुत से विज्ञापनों में जो कुछ भी दिखाया जाता है उस उत्पाद का उन बातों से कोई मतलब नहीं होता लेकिन फिर भी वही सब दोहराया जाता है।ऐसा नहीं है कि इन सब बातों को रोका नहीं जा सकता।भारतीय दंड संहिता में इस अश्लीलता को रोकने के लिए पर्याप्त कानून हैं।आवश्यकता है तो सिर्फ एकजुट होकर मजबूत प्रयास करने की।
एक बात जो अक्सर पुरुषों की मण्डली द्वारा कहते हुए मिल जाती है जिसमें शादी से पहले और बाद के हालात को व्यंग्यात्मक अंदाज़ में पेश करने का चलन रहा है।जैसे शादी करके पत्नी के घर आ जाने के बाद पति की जिंदगी नरक बन गई हो।चाहे कवि-सम्मलेन रहे हों,टी.वी.धारावाहिक,फ़िल्में या आम जीवन हर जगह औरत की छवि का मजाक उड़ाने के लिए उसे ‘लड़ाकी’, ‘सुख-चैन छीन लेने वाली’ या ‘खुशियों को बर्बाद कर देने वाली’ के रूप में प्रस्तुत किया गया।मुझे अपना बचपन याद आता है जब अक्सर ही कवि-सम्मेलनों में प्रख्यात कवि सुरेन्द्र शर्मा जी स्वयं को पत्नी द्वारा प्रताड़ित हुआ ही प्रस्तुत करते थे।मुझे नहीं पता कि मेरी इस बात से कौन सहमत होगा और कौन नहीं क्योंकि बहुत सारे लोग इसे हास्य-व्यंग्य का रूप कहकर उचित ठहराने की कोशिश करेंगे।लेकिन मेरा प्रश्न यह है कि सिर्फ औरत का ही क्यों मजाक उड़े?सुरेन्द्र शर्मा जी की उस समय टेलीविजन के माध्यम से घर-घर पहुँच थी और लोग बस उनकी इसी प्रकार की कविताएँ सुनना पसंद करते थे और उनकी भी शैली सिर्फ इसी जगह केन्द्रित होकर रह गई थी जिसमें ‘घरवाली’ का जितना भी मजाक बन सकता था वे बनाते थे और तालियाँ लूटते थे।लगभग हर घर की औरतों का भी इन्हीं बातों से मजाक बनाया जाता था।औरतें भी इस मजाक में बराबर से शामिल रहतीं थीं लेकिन इसी मजाक ने आज काफी क्रूर रूप ले लिया है।वही हरकत पुरुष करें तो सही है और महिलाएं करें तो उपहास का पात्र बन जाती हैं।चाहे वह शॉपिंग हो या बातें।बहुत सी महिलाएं ऐसी हैं जो बिना ज़रूरत बाज़ार नहीं जातीं फिर भी उन्हीं के पति अपने दोस्तों के साथ बैठकर मजाक उड़ाते हैं कि औरतों को तो शॉपिंग की बीमारी होती है।ऐसे ही मैंने देखा है कि कई बार पुरुष भी बहुत बातें करते दिख जाते हैं लेकिन फिर भी मजाक यही उड़ाया जाता है कि औरतें चुप नहीं बैठ सकतीं या इनके पेट में तो कोई बात नहीं पचती आदि आदि।यह सब मानव स्वभाव की आदतें हैं जो स्त्री पुरुष दोनों में हो सकतीं हैं फिर भी इन्हें औरतों का ही ट्रेडमार्क बना दिया गया है।आखिर क्यों?
परन्तु समय अब बदल रहा है।लोगों की सोच में फर्क आ रहा है।इसी समाज में औरतों का मजाक उड़ाने वाले तत्व हैं तो उनका गरिमामय चित्रण करने वाले लोग भी हैं।आज जब हम इस मुद्दे पर सोच रहे हैं तो यह एक संकेत है कि हम इस स्थिति को बदलना चाहते हैं और एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए तत्पर हैं जहाँ स्त्री की सम्मानजनक उपस्थिति हो,उपहासजनक नहीं।
बहुत ज़रूरी मुद्दे पर आपने ध्यान खींचा है। अब एओ वक़्त आ गया ही कि उस प्रकार के ओछे “पुरुषवादी” चुटकुलों का विरोध किया जाय।ये केवल औरतों के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए ज़हर है।
धन्यवाद!आपने सही कहा कि सिर्फ औरतों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए यह अभिशाप है।
Very nicely put grave truth of society. Thanks
महिला,वो शक्ति है, सशक्त है,वो भारत की नारी है,न ज़्यादा में,न कम में,वो सब में बराबर की अधिकारी है..