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मौलिकता बनाम लोकप्रियता

हिंदी सिनेमा की सुर-सम्राज्ञी लता मंगेशकर का गाना ‘इक प्यार का नगमा है’ गाकर रातों-रात प्रसिद्ध हुई रानू मंडल आजकल सोशल मीडिया में छाई हुई हैं।कुछ दिन पहले फेसबुक पर एक विडियो वायरल हुआ था,जिसमें भिखारिन जैसी दिखने वाली एक महिला बहुत ही मधुर और सुरीले अंदाज़ में ‘शोर’ फिल्म का यही गीत गा रही थीं।जाँच करने पर पता चला कि वायरल विडियो में गा रही महिला का नाम रानू मंडल है,जो पश्चिम बंगाल के राणाघाट रेलवे स्टेशन पर गाना गा कर गुज़ारा करती है।फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर संगीत निर्देशक और गायक हिमेश रेशमिया ने रानू की आवाज़ से प्रभावित होकर उन्हें अपनी आने वाली फिल्म ‘हैप्पी हार्डी एंड हीर’ के तीन गाने गाने का मौका दिया है।अब यह सब बातें आज हर कोई जानता है क्योंकि रानू मंडल और उनकी कहानी सोशल मीडिया में छाई हुई है इसलिए आज मेरा लिखने का उद्देश्य यह न होकर कुछ और है।मैं लता मंगेशकर द्वारा रानू को दी गई नसीहत या सलाह के बारे में बात करना चाहती हूँ क्योंकि लता मंगेशकर सिर्फ हमारी फिल्म इंडस्ट्री की एक महान गायिका ही नहीं अपितु सुरों की देवी हैं और कई दिग्गज कलाकार जो हमसे कही ज़्यादा अनुभवी हैं,उन्होंने भी लता जी को माँ सरस्वती की तरह माना है।

पहले हम यह देखते हैं कि लता जी ने रानू को क्या कहा?तो उन्होंने रानू को नक़ल करने के बजाय ओरिजिनल बनने की सलाह दी है।एक इंटरव्यू में जब लता जी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अगर किसी को उनके नाम या काम से फायदा होता है तो उनके लिए ख़ुशी की बात है लेकिन उन्होंने नवोदित गायकों को ओरिजिनल रहने की सलाह दी,क्योंकि किसी को नक़ल करके पाई गयी सफलता ज़्यादा दिन नहीं रहती लेकिन इस सलाह के बाद तो लोग लता मंगेशकर के पीछे पड़ गये और उन्हें सोशल मीडिया पर जमकर ट्रोल किया गया।कुछ लोगों ने रानू के संघर्ष को ध्यान में रखते हुए लता जी को थोड़ा गरिमामय और उदार होने की सलाह दी तो कुछ ने तो इसे एक सितारे का पतन करार दिया।हद तो यहाँ तक हो गई जब यह सब कहा जाने लगा कि लता को जलन हो रही है।मुझे सच बताऊँ तो इन बातों से बहुत चुभन हुई क्योंकि यह सब कहने वालों ने लता मंगेशकर जैसे कलाकारों की तपस्या या लगन को शायद समझा ही नहीं और उनकी कला की कद्र अगर वे थोड़ी भी कर पाते तो इतनी घटिया सोच या बातें न हो रही होतीं।यह कोई पहली बार नहीं जब इस तरह की बातें हुईं।मुझे याद आता है कि जब अनुराधा पौडवाल फिल्म इंडस्ट्री में आईं थीं तब ओ.पी.नय्यर जैसे दिग्गज संगीत निर्देशक ने कहा था कि लता का दौर अब ख़त्म हो चुका है।अनुराधा ने उन्हें रिप्लेस कर दिया है तो वही गुलशन कुमार ने कहा कि वे अनुराधा को दूसरी लता बनाएँगे।अब मुझे अपने पाठकों को यह बताने की आवश्यकता नहीं कि अनुराधा पौडवाल और लता जी के बीच क्या अंतर है?कुछ लोगों के सहारे और लता जैसी दिग्गज की नक़ल करके कुछ दिन की सफलता प्राप्त कर लेना और उस जैसा ही होने में बहुत अंतर है।मेरे ख्याल से इस सफलता को ‘Fluke’ (अनायास सफलता या तुक्के से हासिल) कहना ज़्यादा सही होगा।यदि अनुराधा जी ने भी अपनी मौलिकता बरक़रार रखी होती और कुछ लोगों का सहारा ही न लेकर अपनी मेहनत और प्रतिभा से सफलता पाई होती तो निसंदेह उनकी गायकी ऐसी थी कि उन्हें और सफलता मिलनी चाहिए थी।ऐसे में लता जैसी इतनी महान कलाकार द्वारा यदि कोई सुझाव नए कलाकारों को दिया जाता है तो उसे सकारात्मकता से न लेकर इतनी क्षुद्र बातें जब कही जाती हैं तो मुझे लगता है कि यह नई पीढ़ी इतनी अभागी है कि अपना ही नुकसान करती है।लता जैसी गायिका इस देश में ही नहीं,धरती पर भी कोई और नहीं है।जिस समय महान गायक के.एल.सहगल के स्टारडम का पहला दशक चल रहा था उस समय एक बच्ची जो उनकी दीवानी थी उसका नाम लता मंगेशकर था।आज जिस लता की गायकी विशुद्धता और मौलिकता का पैमाना है वही लता अपने करियर के शुरुआती दौर में सहगल की तरह गाने की कोशिश करती थीं।इसके अलावा लता ने स्वयं कई बार यह बात स्वीकार की है कि उनकी गायन शैली पर नूरजहाँ का प्रभाव था।जिस समय लता मंगेशकर ने फिल्म संगीत की दुनिया में कदम रखा तब शमशाद बेग़म,खुर्शीद,नूरजहाँ,सुरैया और राजकुमारी जैसी गायिकाओं का बोलबाला था।नूरजहाँ तो तब ‘मल्लिका ए तरन्नुम’ कहलाती थीं।शायद इसीलिए शुरू में लता जी की गायकी की तुलना नूरजहाँ से सबसे ज़्यादा हुई।उस समय के संगीतकार भी उन्हें नूरजहाँ जैसा गाने के लिए कहते थे।इसलिए लता जी के कुछ शुरुआती गीत जैसे, ’आएगा आने वाला’ और ‘उठाए जा उनके सितम’ आदि में नूरजहाँ की छाप स्पष्ट दिखती है लेकिन मैंने स्वयं लता मंगेशकर के एक इंटरव्यू में यह बात उनके द्वारा ही सुनी कि जब उन्होंने देखा कि उनके ऊपर नूरजहाँ जी को कॉपी करने के इलज़ाम लग रहे हैं तो तुरंत ही उन्होंने अपनी शैली बदल ली और नूरजहाँ की छाया से निकल कर विशुद्ध अपना अंदाज़ लता मंगेशकर वाला अपना लिया जिसमे उन्हें इतनी कामयाबी मिली और सभी से वे इतना आगे निकल गईं कि आज तक कोई उनके पास नहीं पहुँच पाया है।कुछ वर्षों से चाहे फिल्मों के लिए वे पार्श्व गायन नहीं भी कर रहीं लेकिन आज भी वे पूरी तरह सक्रिय हैं।उन्हें 2001 में भारत रत्न और 1989 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार भी मिल चुका है।यह हमारे लिए सौभाग्य की बात होगी कि हम उस समय में जी रहे हैं जब भारतीय फिल्म संगीत में सात दशक के अभूतपूर्व योगदान के लिए स्वर कोकिला लता जी को ‘डॉटर ऑफ़ द नेशन’ का ख़िताब दिया जाएगा।केंद्र सरकार 28 सितम्बर को उनके 90वें जन्मदिवस पर उन्हें यह सम्मान देगी।मुझे तो लगता है कि शायद अब कोई सम्मान ही नहीं बचा है जो उन्हें दिया जा सके क्योंकि वास्तव में वे ‘सम्मान की सम्मान हैं’।कोई गायिका अपनी 70-75 वर्ष की उम्र में भी ऐसा गा सकती है इसकी लताजी ने शानदार मिसाल पेश की है।उन्होंने जो मान-सम्मान अपने जीवन में एक पार्श्व गायिका के रूप में प्राप्त किया है उतना फिल्म-संगीत क्षेत्र की किसी हस्ती को नहीं मिला।ऐसी अनुभवी गायिका ने क्या गलत कहा कि नक़ल सफलता का विश्वसनीय और टिकाऊ साथी नहीं हो सकती।नक़ल से कम वक़्त के लिए ध्यान खींचा जा सकता है लेकिन यह आखिरी नहीं है।लता जी ने खुद भी इन्ही परिस्थितियों और इल्जामों को झेला था तभी अपनी एक अलग छाप बनाई।

‘सात दशक का अभूतपूर्व योगदान’ यह शब्द लिखते हुए भी मन में एक झुरझुरी सी दौड़ जाती है,क्योंकि हम देखते हैं कि सात दशक तो दूर एक या दो दशक बीतते ही कलाकारों की कला कहीं लुप्त सी होने लगती है और गुमनामी के अंधेरों में वे खो जाते हैं लेकिन वही बात फिर आ जाती है कि यदि मौलिकता है तो फिर आपको चमकने से कोई भी रोक नहीं सकता और इसकी मिसाल लता जी के अलावा उन्हीं की छोटी बहन आशा भोंसले भी हैं।लता आशा जी की तुलना में एक बार गुलज़ार साहब ने कहा था कि “एक चाँद है तो दूसरी सूरज।कैसे तुलना हो सकती है?” एक बार लता जी ने अपनी बहन आशा के लिए कहा था कि “अगर आशा अपने स्टाइल में गाने की ज़िद नहीं करती तो वह मेरी परछाईं बनकर रह जाती।वह इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि व्यक्ति की प्रतिभा उसे कितनी दूर तक ले जा सकती है।” वास्तव में और किसी भी गायिका से कहीं ज़्यादा आशा जी के ऊपर लताजी की गायन शैली का प्रभाव सबसे ज़्यादा पड़ सकता था क्योंकि उन्होंने बचपन से ही उन्हें गाते सुना था लेकिन उन्होंने अपनी ऐसी शैली विकसित की जिसमें दूर-दूर तक कहीं लता जी की गायन शैली का कोई असर नहीं था।सही कहा गया है कि “Style is man himself।” जो लोग इस बात का अनुसरण करते हैं चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो,वे ही सफलता प्राप्त कर पाते हैं।अभिनय के क्षेत्र में भी न जाने कितने युवाओं ने आकर अमिताभ बच्चन बनने की कोशिश की लेकिन आज तक इंडस्ट्री में सिर्फ एक ही अमिताभ बच्चन है।उनके पुत्र अभिषेक जिनका चेहरा मोहरा पिता से मिलता भी है,लेकिन उनकी तुलना कहीं भी उनके पिता से की ही नहीं जा सकती।इसलिए किसी भी कलाकार को मौलिकता का ध्यान सबसे ज़्यादा रखने की आवश्यकता है।

हमारी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब किसी बड़े कलाकार को कॉपी करके किसी ने सफलता प्राप्त की तो वह सफलता बस चंद दिनों की ही रही।सिने जगत के महान गायक के.एल.सहगल की आवाज़ और शैली को भी बाद के गायकों ने बहुत ज़्यादा अपनाने की कोशिश की लेकिन उनके जैसे साधक स्वर शायद ही किसी की आवाज़ में महसूस किये गये हों।मंद और तार सप्तक तक सहज उड़ान भरने की कला सहगल के गले में ही थी।उनके गले में जो गूँज और गंभीरता थी वह सिर्फ सुन कर ही महसूस की जा सकती है।मेरे नाना जो उनकी गायकी के बहुत ही दीवाने थे और स्वयं भी संगीत के बारे में काफी जानकारी रखते थे,वे हमेशा कहा करते थे कि सहगल ही एक ऐसा गायक है जिसकी आवाज़ की खनक ऐसी है जो बिना किसी साज के भी ऐसी लगती है जैसे कई सारे वाद्य यंत्र बज रहे हों।मेरी माँ बताती हैं कि शायद सन 1941-42 की बात है कि सहगल साहब कश्मीर आए थे तो मेरे नाना अपने दोस्तों के साथ उनसे मिलने गये और वहां 10-15 लोगों की मण्डली बनाकर उनके गाने सामने बैठकर सुने।ऐसे में मैं कह सकती हूँ कि उन्हें सहगल की आवाज़ की बहुत परख थी।इसलिए एक नये गायक सी.एच.आत्मा,जिन्हें सहगल की आवाज़ कहा गया जब इंडस्ट्री में आए तो मेरे नाना को उनके गाने का बहुत इंतज़ार था।उनका एक गीत जो गैर फ़िल्मी है ‘प्रीतम आन मिलो’,काफी लोकप्रिय हुआ और कुछ लोगों ने समझा कि यह सहगल साहब का गीत है लेकिन मेरी माँ बताती हैं कि मेरे नाना और उनके दोस्त ने पहली बार ही रेडियो में इस गाने को सुनकर कह दिया था कि सहगल की बात इसमें दूर-दूर तक नहीं है।क्योंकि वह गमक,गूंज,खनक सबमें नहीं हो सकती।अब फिर वही मौलिकता वाला बिंदु आ जाता है कि यदि सी.एच.आत्मा ने भी अपना मौलिक अंदाज़ रखा होता और सहगल साहब की नक़ल नहीं की होती तो इतनी जल्दी वे गुमनामी के अंधेरों में न खोते।उन्होंने उस समय की एक मशहूर फिल्म ‘नगीना’ के भी गीत गाये और इसी फिल्म का एक गीत ‘रोऊँ मैं सागर किनारे,सागर हंसी उड़ाए’ जो कि उस समय बड़ा मशहूर भी हुआ और निसंदेह बहुत ही सुन्दर तरीके से गाया गया था लेकिन फिर वही बात आ जाती है कि जब किसी नामचीन और अत्यधिक सफल व्यक्ति को कॉपी किया जाता है तो इतना तो निश्चित है कि हुबहू उस जैसा तो कोई भी नहीं गा सकता ऐसे में पूरी तरह से उस प्रसिद्ध गायक से तुलना होने लगती है और नया गायक कुछ दिन बाद उस पैमाने से उतर जाता है और कहीं गुम हो जाता है ऐसे में निसंदेह लता मंगेशकर जी की बात पूरी तरह सही है कि नये बच्चे सभी गायकों के एवरग्रीन गाने गायें लेकिन कुछ समय बाद गायक को अपना गाना ढूँढना चाहिए।इस समय मुझे कुछ गायक-गायिकाओं की याद आ रही है जिन्होंने अपने शुरूआती दौर में किसी न किसी प्रसिद्ध कलाकार का अनुसरण किया जैसे सोनू निगम को शुरुआत में मोहम्मद रफ़ी का क्लोन तक कहा गया लेकिन उन्होंने सफलता की सीढ़ी चढ़ना शुरू करते ही अपने अंदाज़ को बदला और मौलिक शैली विकसित करने की कोशिश की और इसी का अंज़ाम है कि इतनी प्रतिस्पर्धा होते हुए भी वे अपने मुकाम पर कायम हैं।इसी तरह श्रेया घोषाल और सुनिधि चौहान ने भी अपनी मौलिकता को नहीं छोड़ा।मुझे एक गायक जो बहुत ज़्यादा पसंद हैं उदित नारायण हैं।उनकी भी आवाज़ में अपनी एक अलग विशेषता है जो किसी की भी नक़ल नहीं लगती और मस्ती और नशीली सी इस आवाज़ को सुनते ही यह पता लग जाता है कि यह उदित नारायण गा रहे हैं और यही एक गायक की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है कि श्रोता सुनते ही इस मुगालते में न रहे कि इसे कौन गा रहा है?जबकि उदित जी के लगभग समकालीन कुमार शानू को भी काफी गीत गाने का अवसर मिला लेकिन उनकी आवाज़ किशोर कुमार जी की ही नक़ल अधिक लगी इसलिए उनकी सफलता को भी मैं Fluke ही कहूँगी जो अकस्मात् आई और चली भी गई।क्या कारण है कि आज भी सहगल,मुकेश,किशोर मन्ना डे,हेमंत कुमार,तलत महमूद,लता मंगेशकर,आशा भोंसले और गीता दत्त आदि को हम भूल नहीं सके हैं और उनके गाने आज भी खूब गुनगुनाये जाते हैं जबकि आज के नये गीत और उनके गायकों को बहुत ही कम समय में भुला दिया जाता है।यहाँ तक कि मैं देखती हूँ कि संगीत के जो लाइव कार्यक्रम टेलीविज़न पर आते हैं उनमें जो प्रतियोगी होते हैं जिनमें कई बार छोटे बच्चे भी होते हैं,वे आज से 50 साल पहले के भी गाने गा रहे होते हैं।इसका मतलब मैं कई बार सोचती हूँ कि इन कार्यक्रमों के आयोजक,प्रतियोगी और उनके संरक्षक तथा उनके गुरु सभी को ऐसा लगता है कि अपनी गायन प्रतिभा का परिचय पुराने गानों के द्वारा ही ठीक से दिया जा सकता है।नये गानों को गाने से शायद उन्हें अपनी कला का प्रदर्शन करने में संतुष्टि नहीं मिलती।

अपना स्टाइल,अपनी मौलिकता क्यों सफलता का पैमाना बनते हैं इसके मैं कुछ उदाहरण देना चाहूंगी।सन 1940-50 की प्रसिद्ध गायिका राजकुमारी जी को भी मैं बहुत पसंद करती हूँ।उनकी शैली भी अपनी ही थी।उनकी मृत्यु को ही अब तो बीस वर्ष हो रहे हैं।आज से कोई 24-25 वर्ष पहले वे टेलीविज़न के किसी लाइव कार्यक्रम में आईं थीं तो मुझे याद है उन्होंने स्वयं बताया था कि फिल्म ‘बावरे नैन’ का गीत “सुन बैरी बलम सच बोल रे इब क्या होगा” गाते हुए वे इब की जगह अब बोलने लगीं तो निर्देशक ने उन्हें टोका और ‘इब’ बोलने को ही कहा।अब इस गाने में वे जब ‘इब’ कहती हैं तो यही एक शब्द पूरे गाने की जान लगता है।यदि हम संगीत की थोड़ी भी समझ रखते हैं तो यह एहसास करने की बात है कि उनके बोले ‘इब’ की तुलना किसी से की जा सकती है?

इसी तरह आशा भोंसले जी का एक गाना है ‘जानेमन जानेमन तेरे दो नयन’ फिल्म छोटी सी बात का।एक बार किसी लाइव शो में आशाजी आईं थीं तो उन्होंने बताया कि इस गाने में जो उन्होंने यह लाइन गाई है- “मेरे दो नयन चोर नहीं सजन तुमसे ही खोया होगा कहीं तुम्हारा मन” इसमें जो उन्होंने ‘मेरे दो नयन’ बोला है उसको उन्होंने बहुत ही स्टाइल से गाया है।सच में मैंने जब ध्यान से इस गाने को सुना तो एहसास हुआ कि ‘दो नयन’ बोलने में ही आशा जी ने अपना अंदाज़ दिखा दिया।क्या यह दो उदाहरण काफी नहीं हैं यह सोचने को कि हर व्यक्ति या कहिये कलाकार का अपना अंदाज़ होता है और उसे वही बरक़रार रखना चाहिए किसी की नक़ल करके कोई भी सफलता ज़्यादा दिन नहीं टिकती।

आज का मेरा लेख लम्बा होता जा रहा है और मुझे यह चिंता हो जाती है कि मेरे पाठक कहीं ऊब न जाएँ लेकिन इतना लिख देने के बाद भी बहुत सी ऐसी बातें रह गई हैं जो मैं आप लोगों के साथ साझा करना चाहती थी लेकिन फिर कभी अगले लेखों में मैं ज़रूर इसी विषय को फिर से उठाना चाहूंगी।पर अभी मैं एक और कलाकार का ज़िक्र आपके साथ करुँगी और वे हैं मास्टर मदन।जालंधर के एक सिख परिवार में उनका जन्म हुआ।मात्र साढ़े तीन साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला कार्यक्रम हिमाचल प्रदेश में पेश किया और सिर्फ साढ़े चौदह वर्ष की उम्र में इस सितारे को इस धरती को छोड़कर ईश्वर के दरबार में जाना पड़ा लेकिन इतने कम समय के बावजूद मास्टर मदन भारतीय संगीत इतिहास में अमर हो गये।उनकी मृत्यु रहस्यों के घेरे में ही रही लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है।उन्होंने ग़ज़ल,ठुमरी और सबद (गुरबानी) गाई।इस नन्हे से कलाकार की तान में एक टीस है,ऐसे स्वर जिसमें पीड़ा का एहसास होता है।उनकी दो ग़ज़लें सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध हुईं। ‘हैरत से तक रहा है जहाने वफ़ा मुझे’ और ‘यूँ न रह रह कर हमें तरसाइए,दिल है हाज़िर’ इन्हें सुनकर कोई भी इस नन्हे कलाकार का दीवाना हुए बिना नहीं रहेगा और ऐसा जानते हैं क्यों ?क्योंकि इस कलाकार की कला में मौलिकता है,सच्चाई है और इसीलिए यह दिल में लगता है।

ऐसे ही एक कलाकार थे तलत महमूद जो लखनऊ के ही थे।उनकी आवाज़ में जो ‘कम्पन’ था उसकी वजह से उन्हें बार-बार नकार दिया जाता था लेकिन चमत्कार देखिये कि उनकी आवाज़ की यही ‘लरजिश’,यही ‘कम्पन’ उनकी पहचान बना।संगीत निर्देशक अनिल विश्वास उनकी इसी लरजिश और कम्पन पर मंत्रमुग्ध हो गये।जब पहली बार तलत रिकॉर्डिंग के लिए अनिल विश्वास के पास गये तो उन्होंने अपनी स्वाभाविक आवाज़ को बदलकर गाना शुरू किया लेकिन अनिल विश्वास के यह पूछने पर कि “मेरा तलत कहाँ है?” तलत की आँखों में आंसू आ गये और उन्होंने फिर अपने उसी पुराने अंदाज़ में गाना गाया और उसके बाद तो उनकी सफलता का इतिहास सभी को पता है।ऐसे ही हेमंत कुमार भी फिल्म जगत की महान हस्ती हैं और उनकी आवाज़ की अपनी अलग विशेषता थी।अभी उनके एक गीत का ही उदाहरण काफी है।फिल्म ‘ख़ामोशी’ का गाना ‘तुम पुकार लो,तुम्हारा इंतज़ार है’ इसकी शुरुआत में जो ‘हमिंग’ हुई है वह नायक की बेचैनी को ज़ाहिर करती है और गाने के अंत में जो सीटी बजी है वह दिल की गहराइयों में उतर जाती है।उफ़ क्या स्टाइल थे इन महान कलाकारों के।सब एक दूसरे से जुदा लेकिन फिर भी अपना-अपना सभी का स्थान।

कितने कलाकार हैं जिनकी बात अभी मैं आपसे कर ही नहीं सकी।मुझे खुद ही ताज्जुब हो रहा है कि यह मैं आज कैसा विषय लेकर बैठ गई जिसमें मन कर रहा है कि लिखती ही जाऊं जो भी दिल में आए।लेकिन अब आज मुझे यही रुकना होगा।आप सभी जब इस लेख को पढ़ें तो एक बार यह सोचें अवश्य कि संगीत का वह जो पुराना स्वर्णिम दौर था,उसका कुछ प्रतिशत भी आज क्यों नहीं रह गया है?त्वरित सफलता की चाह,मेहनत की कमी और भौतिकतावादी दृष्टिकोण ने आज हर कला की आत्मा को लगभग समाप्त कर दिया है,शरीर ही सिर्फ बचा रह गया है लेकिन यदि हमें इन कलाओं का पूरा आनंद लेना है तो इनकी आत्मा को भी पुनःजगाना होगा।      

5 thoughts on “मौलिकता बनाम लोकप्रियता

  1. मन के तार छू दिए आपने।आपका लेख पढ़कर बस एक ही गीत याद आ रहा है “दिल छेड़ कोई ऐसा नग़मा गीतों में ज़माना खो जाए।” वाक़ई गुज़रे ज़माने याद आ रहे हैं। मौलिकता अजेय है और नकल मान्यता प्राप्त करने का असफल प्रयास।मौलिकता आधार है व्यक्तित्व का।ठहरिए मत आगे बढ़िये क्योंकि जो आगे बढ़ता है वही अपने जीवन में कुछ नवीन कर पाता है,नए अनुभव ले पाता है और समाज को कुछ नया देकर जाता है।और नवीनता तभी खोजी जा सकती है जब अपनी मौलिकता को खोज पाएं। मौलिकता में ही जीना सीखना चाहिए।

  2. कहा जाता है “कि मनुष्य का भाग्य कब बदल जाये , कोई नहीं जानता, बस ऐसा ही कुछ हुआ रानू मंडल के साथ ” भगवान के रूप में हिमेश रेशमिया की नज़र इनपर पड़ी और फिर रानू का भाग्य एक स्टेशन के गायक से उन्हें एक बड़े मंच तक ले गया ।

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