सिख धर्म के संस्थापक और प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी गाँव (सम्प्रति पाकिस्तान में लाहौर के निकट) में वर्ष 1469 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था।बाद में यह स्थान ननकाना साहब के नाम से प्रसिद्ध हुआ।उनका जन्म दिवस प्रति वर्ष प्रकाश पर्व के रूप में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।इस वर्ष यह पर्व आज 12 नवम्बर को कार्तिक पूर्णिमा के दिन श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है और आज इसका महत्व और भी अधिक है क्योंकि इस वर्ष गुरु नानक देव जी की 550 वीं जयंती का उल्लास हर तरफ छाया हुआ है।
गुरु नानक जी बाल्यावस्था से ही प्रतिदिन संध्या के समय अपने मित्रों के साथ बैठकर सत्संग किया करते थे।उनके प्रिय मित्र भाई मनसुख ने सबसे पहले नानक की वाणियों का संकलन किया था।ऐसी कथा है कि नानक जब वेई(वैन) नदी में उतरे तो तीन दिन बाद प्रभु से साक्षात्कार करने के बाद ही बाहर आये। ‘ज्ञान’ प्राप्ति के बाद उनके पहले शब्द थे-‘एक ओंकार सतनाम’।विद्वानों के अनुसार,ओंकार शब्द तीन अक्षर ‘अ’,’उ’ और ‘म’ का संयुक्त रूप है।’अ’ का अर्थ है जागृत अवस्था,’उ’ का अर्थ स्वप्नावस्था और ‘म’ का अर्थ है सुप्तावस्था।तीनों अवस्थाएँ मिलकर ओंकार में एकाकार हो जाती हैं।
लोगों में प्रेम,एकता,समानता,भाईचारा और आध्यात्मिक ज्योति का सन्देश देने के लिए श्री गुरुनानक देव जी ने जीवन में चार बड़ी यात्राएं की थीं,जो ‘चार उदासी’ के नाम से जानी जाती हैं।इन यात्राओं में उनके साथ दो प्रिय शिष्य बाला और मरदाना भी थे।श्री गुरु नानक देव जी का कंठ बहुत सुरीला था।वे स्वयं अपने लिखे पद गाते थे और मरदाना रबाब बजाते थे।नानक जी की समस्त वाणी ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में संकलित है।
अपने काव्य के माध्यम से नानक ने पाखंड,छुआछूत जाति-प्रथा और राजसी क्रूरता का घोर विरोध करते हुए नारी गुणों,प्रकृति चित्रण और आध्यात्म के गूढ़ रहस्यों का सजीव चित्रण किया है।अपने काव्य में उन्होंने प्रभु को ‘प्रेमिका’ का दर्जा दिया है।नानक का मानना था कि अपने आपको उसके प्रेम में मिटा दो,ताकि तुम्हें ईश्वर मिल सके।जब पूर्ण विश्वास के साथ हम सब कुछ प्रभु पर छोड़ देते हैं तो प्रभु स्वयं हमारी देख-रेख करते हैं।उनका कहना था कि प्रभु नाम की खुमारी रात-दिन हम पर चढ़ी रहनी चाहिए-
“नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात।”
श्री गुरु नानक देव जी ने गृहस्थ जीवन अपनाकर समाज को यह सन्देश दिया कि प्रभु की प्राप्ति केवल पहाड़ों या कंदराओं में तपस्या करने से ही प्राप्त नहीं होती,वरन गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी आध्यात्मिक जीवन को अपनाया जा सकता है।नानक जी का मत था कि वे सभी उपाय,जिनसे हम प्रभु का साक्षात्कार कर सकते हैं,उन्हें अपनाते हैं तो जीवन में सात्विकता आती है।इससे आपका मन आनंद,प्रेम और दया भाव से भरा रहता है।
गुरु नानक किसी भी व्यक्ति,समाज ,सम्प्रदाय या देश के किसी भी भाग या मत से सम्बंधित नहीं थे बल्कि वे सबके थे और सब उनके।उनका मानना था कि उनके लिए न कोई हिन्दू है,न मुसलमान।सारे संसार को वे अपना घर समझते थे और संसार में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को वे अपने परिवार का हिस्सा समझते थे।आज कुछ हालात ऐसे हो गये हैं कि लोग सांसारिक तृष्णा में लिप्त हैं।जीवन की वास्तविकता से दूर जाने के कारण ही जीवन में नीरसता,कुंठा और निराशा बढ़ती जा रही है।हम छोटी सी बात पर लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं।हमारा अंतःकरण हमसे छूटता जाता है और हम अधिक तनाव में रहने लगते हैं।ऐसे में नानक देव जी की वाणी तपते हुए मन में ठंडी फुहारों के समान महसूस होती है।
गुरु नानक देव जी ने लोक-कल्याण के लिए चारों दिशाओं में चार यात्राएं करने का निश्चय किया था।वर्ष 1499 में आरम्भ हुई इन यात्राओं में नानक जी भाई मरदाना के साथ पूर्व में कामाख्या,पश्चिम में मक्का-मदीना,उत्तर में तिब्बत और दक्षिण में श्रीलंका तक गये।गुरु नानक देव जी ने 38 हज़ार मील की पैदल यात्रा कर चार उदासियाँ (पवित्र यात्राएं) कीं और दुनिया को सद्भावना और ‘सरबत दा भला’ का सन्देश दिया।यात्रा के दौरान उनके साथ अनगिनत प्रसंग घटित हुए,जो विभिन्न साखियों के रूप में लोक-संस्कार का अंग बन चुके हैं।उन्होंने कर्म-कांड और जात-पात के खिलाफ ज़ोरदार आवाज़ उठाई।श्री गुरु नानक देव ने दर्ज़न भर देशों के 248 प्रमुख नगरों का भ्रमण कर समाज के उत्थान के लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाए।भाई मर्दाना को साथ लेकर पहला प्रहार जाति-बंधन पर किया।पहले चरण में 79,दूसरे में 75,तीसरे में 35 और चौथे में 59 स्थलों की यात्रा कर ‘परमात्मा एक’ का उपदेश दिया।वर्ष 1522 में इन यात्राओं(जिन्हें ‘उदासियाँ’ कहा जाता है) को समाप्त करके उन्होंने करतारपुर साहिब को अपना निवास स्थान बनाया।करतारपुर साहिब का सिखों के लिए विशेष महत्व है।यहाँ दर्शन के लिए संगत को काफी जद्दोजहद करनी पड़ती थी।वे पहले भारत से लाहौर जाते थे और फिर वहां से करतारपुर साहिब।इस सफ़र में 125 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती थी या फिर श्रद्धालु डेरा बाबा नानक से दूरबीन के जरिये करतारपुर साहिब के दर्शन करते थे।इससे दर्शन तो हो जाते थे,पर उस पवित्र स्थल की मिट्टी को माथे पर लगाने की तड़प मन में बनी रहती थी परन्तु अब 9 नवम्बर को दोनों देशों के प्रधानमंत्री ऐतिहासिक कोरिडोर का उद्घाटन कर चुके हैं तो श्रद्धालुओं की दशकों पुरानी मनोकामना पूरी हो रही है।9 को ही पहला जत्था करतारपुर साहिब के दर्शन के लिए गया।श्री गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश पर्व के अवसर पर यह ख़ुशी और भी अधिक हो गई है।
करतारपुर साहिब में रहते हुए गुरु नानक देव जी खेती का कार्य भी करने लगे थे।गृहस्थ संत होने के कारण वे स्वयं मेहनत के साथ अन्न उपजाते थे।1532 में भाई लहिणा उनके साथ जुड़े,जिन्होंने सात वर्षों तक समर्पित होकर उनकी खूब सेवा की।बाद में लहिणा गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी बने।अपने भक्तों के लिए जाग्रति की ज्योति जगाते हुए गुरु नानक जी वर्ष 1539 में परम ज्योति में विलीन हो गये।
गुरु जी की वाणी ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में संकलित हैं।इसमें जपजी साहिब,आसा दी वार,सिध गोसदि,बारेमाह आदि प्रमुख वाणियों सहित गुरु जी के कुल 958 शबद और श्लोक हैं।उनकी वाणी में न सिर्फ आध्यात्मिक अनुभवों की प्रस्तुति है बल्कि तत्कालीन सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियों पर मौलिक एवं सशक्त चिंतन भी मिलता है।उसमें सामाजिक समरसता पर बल और जाति भेद का खंडन है तो किरत करने और मिल बाँट कर खाने जैसा आर्थिक सिद्धांत भी है।उन्होंने राजनीतिक एवं आर्थिक शोषण का डट कर विरोध किया और राजनीतिक अधिकारों,आर्थिक समानता और धार्मिक स्वतंत्रता की खुल कर पैरवी की।आपकी वाणी एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन प्रस्तुत करती है जिसे अपनाकर सुखी,संतुष्ट और श्रेष्ठ जीवन जिया जा सकता है।
सतगुरू नानक प्रगटिया
मिटी धुन्ध जग चानण होया।
ज्यूँ कर सूरज निकलया
तारे छुपे अन्धेर पलोआ।।
लख लख बधाइयाँ