आज मैं एक ऐसे विषय पर लिख रही हूं जो शायद आपको कुछ अजीब सा लगे लेकिन यदि आप मेरे पूरे लेख को ध्यान से पढ़ेंगे तो एक बार सोचेंगे अवश्य कि बात सही है।अब मैं सबसे पहले तो यह बताना चाहूंगी कि इस लेख को लिखने का विचार मुझे कैसे और क्यों आया?कृपया मेरे पाठक इसमें कहीं भी कोई राजनीतिक रंग न देखें।
दरअसल इधर कुछ वर्षों से मैंने कई बार बहुत से लोगों के मुंह से देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री आदित्यनाथ योगी जी के लिए यह शब्द सुने कि उन्हें किसी के दर्द का एहसास क्या हो?शादी तो की नहीं न कोई बच्चा है तो वे किसी के दुख को क्या समझें?ऐसी बातें अच्छे खासे पढ़े लिखे लोगों के मुंह से सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह जाती हूँ।एक दिन तो हद ही हो गयी।अब मैं नाम नहीं ले सकती लेकिन मेरे एक जानने वाले जो पढ़े लिखे बुद्धिजीवी वर्ग से आते हैं वे देश के हालातों पर बात करते हुए इतना ज़्यादा डूब गए कि मोदीजी के लिए बोल उठे, ” अरे छोड़िये उनकी बात।उनके न आगे नाथ न पीछे पगहा।उन्हें किसी के बच्चे का दर्द क्या समझ आएगा?” उनके शब्द सुनकर मैं अवाक रह गयी कि किसी के दर्द को समझने के लिए क्या अपने बच्चे होना ज़रूरी है?क्या मातृत्व-पितृत्व केवल अपने बच्चे पैदा करके ही हासिल होता है?क्या वात्सल्य भाव किसी के प्रति भी नहीं आ सकता?कितनी बार उन्हें निरवंशी तक कहा गया और किनके द्वारा यह आप सब भी जानते हैं।
इन प्रश्नों का जवाब मुझे इधर कुछ दिनों में अपने आप हालातों ने दे दिया।जबसे कोरोना का कहर हमारे देश मे आया है और लॉकडाउन की स्थिति में अपने घर में कुछ क्षण सिर्फ अपनी परछाईं के साथ जीने का अवसर प्राप्त हुआ तो मेरे मन ने मुझसे पूछा कि क्या कहीं से भी देश के प्रधानमंत्री मोदी जी या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी के किसी भी कार्य से ऐसा लगा कि अपने बच्चे या परिवार न होने के कारण वे कोई कठोर कदम उठा रहे हैं? बल्कि मैंने ही नहीं मेरे जैसे अनगिनत लोगों ने यह महसूस किया कि यह सिर्फ हमारा भारत देश और उसका नेतृत्व ही था जिसने इतनी बड़ी महामारी के आने पर आर्थिक या किन्हीं भी हालातों की परवाह न करके सिर्फ़ अपने देश के लोगों की जान को वरीयता दी और देश कितना पीछे चला जाएगा या क्या परिस्थितियां बनेंगी यह न सोचते हुए तुरंत लोगों की जान बचाने को प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी।सारे हालातों पर स्वयं नज़र रखी और मानवीय संवेदनाओं का ध्यान रखते हुए खुद प्रधानमंत्री ने कई बार देश के नागरिकों को सम्बोधित किया और इन सारी असुविधाओं के लिए माफी भी मांगी।जबकि मैं लिखना नहीं चाहती कि भूतकाल में कितने ऐसे अवसर आये जब कई अन्य प्रधानमंत्रियों ने सिर्फ एक आदेश दिया और कितना कुछ कठोर जनता के साथ हुआ और उस क्रूरता का कभी उन्हें पछतावा भी नहीं हुआ जबकि इस प्रधानमंत्री ने कठोर कार्रवाई सिर्फ जनता के भले के लिए की ,उसकी जान बचाने को की कोई अपने स्वार्थ के लिए नहीं।अब अगर मैं ज़्यादा कुछ यहां लिखूंगी तो शायद मेरे पाठकों को भी लगे कि मैं किसी राजनीतिक दल से प्रभावित होकर ऐसा लिख रही हूं लेकिन मेरा यकीन मानिए कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।मैं जो देख और महसूस कर रही हूं वही लिख रही हूं।मेरे कुछ रिश्तेदार और मित्र कनाडा,लंदन और अमेरिका में हैं और आजकल कोरोना के कारण काफी परेशान हैं।उनसे जब भी हमारी फोन पर बात होती है तो उनका एक ही कथन होता है कि तुम लोग कितने भाग्यशाली हो जो भारत जैसे देश में हो जहां के लीडर ने पहले लोगों की जान को महत्व दिया न कि आर्थिक हालातों को।इतने कठोर और सुरक्षित निर्णय लिए गए कि महामारी का फैलाव अत्यंत धीमी गति से हुआ।इटली, अमेरिका, चीन,ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश जो विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं और हर क्षेत्र में हमसे कही आगे हैं, फिर भी वहां कोरोना से मौत के आंकड़े सभी जानते हैं और हमारे देश के नेतृत्व की मुस्तैदी,क्षमता और मानवीय मूल्यों को वरीयता देने की सोच का परिणाम है कि अभी भी हमारा देश इस महामारी से बहुत बचा हुआ है और ईश्वर करे कि आगे भी अब कोई बुरे हालात न बनें और विश्व के सभी देश इस वायरस के चंगुल से आज़ाद हों।अब इन सारी सकारात्मक बातों पर ध्यान न देकर यदि हम नकारात्मक बातों पर ही ध्यान केंद्रित रखेंगे और यह नहीं सोचेंगे कि 130 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश में जहां सुविधाएं भी बहुत नहीं हैं और परिस्थितियां भी प्रतिकूल हैं तो ऐसे में ज़रा सी भी कमी को इतना बड़ा रूप न देकर इस महामारी के समय धैर्य से काम लेना चाहिए।गर्व होता है जब ब्राज़ील और अमेरिका जैसे देशों के राष्ट्राध्यक्ष हमारे प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते हैं।क्यों हम सब उस समय उनकी प्रशंसा से प्रसन्न नहीं होते?क्या वे हमारे देश के प्रधानमंत्री नहीं है?
मुझे आजकल बचपन में पढ़ी रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की कविता ‘सूरज की शादी’ की कुछ पंक्तियां बहुत याद आती हैं।पहले इसकी कुछ पंक्तियां देखें-
” उड़ी एक अफवाह,सूर्य की शादी होने वाली है,
वर के विमल मौर में मोती उषा पिरोने वाली है।
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अगर सूर्य ने ब्याह किया,दस-पांच पुत्र जन्मायेगा,
सोचो,तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पाएगा?
अच्छा है सूरज कुंवारा है, वंश विहीन,अकेला है,
इस प्रचंड का ब्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है।”
वास्तव में कुछ कुंवारों द्वारा किये गए कार्य इतने महान हो जाते हैं और एक खास वर्ग जो इन महान कार्यों से बड़ा चिढ़ता है उसे तो लगता होगा कि ऐसे लोग कुंवारे ही भले वरना यदि वे ब्याह रचाते तो जैसे सूरज के ब्याह से वन के जीव जंतु जलचर सब भयभीत हैं क्योंकि सूरज के ताप के आगे कोई टिक नहीं सकता ऐसे ही कुछ विशिष्ट लोगों के कार्यो में ऐसा ताप होता है कि उसकी आंच से कोई भी बच नहीं पाता।ऐसे में जो लोग भी ऐसे लोगों के महान कार्यों के ताप में आते हैं वे तो यह ही मनाते होंगे कि अच्छा है ऐसे लोग कुंवारे हैं वरना इनकी कोई औलाद होती और उसमें भी पिता का कुछ अंश होता तो उस ताप को भी सहना पड़ता।अब वो बात अलग है कि भ्रम में जीने वाले इसे न मानें।
अब यह कविता तो राष्ट्रकवि दिनकर ने बच्चों के लिए शायद मज़ाक में ही लिखी होगी लेकिन कुछ कुंवारों पर तो बिल्कुल सटीक जा बैठती है और उतनी ही सटीक उन लोगों पर भी बैठती है जो अनायास इन लोगों से बराबरी करने के लिए पंगे लेते फिरते हैं।
अब एक दूसरा मुद्दा इन महान अविवाहित हस्तियों पर यह बैठता है कि इनके अपने बच्चे न होने के कारण ममता का भाव नहीं होता।मैं बात लंबी न करते हुए बस एक उदाहरण देना चाहूंगी।साहित्य की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले भलीभांति जानते होंगे कि साहित्य में नौ रस माने गए हैं।हिंदी साहित्य में वात्सल्य को दसवां रस माना गया और वह भी भक्त कवि सूरदास के कृष्ण के बाल रूप वर्णन को देखकर कहा जाता है कि वात्सल्य को दसवां रस स्वीकार कर लिया गया क्योंकि सूर का बाल वर्णन ऐसा है कि उसे पढ़कर किसी के भी सामने एक सुंदर नटखट बालक का चित्र उपस्थित हो जाता है।सूरदास द्वारा वात्सल्य भाव का इतना विस्तार किया गया कि ‘सूरसागर’ को दृष्टि में रखते हुए वात्सल्य को रस न मानना एक विडंबना सा प्रतीत होता है।कई आलोचकों ने तो सूर के बाल वर्णन के आधार पर वात्सल्य को वीभत्स,हास्य आदि अनेक रसों से तर्क सहित श्रेष्ठ सिद्ध किया है।
अब आप सोच रहे होंगे कि सूर के बाल वर्णन का अविवाहित लोगों से क्या संबंध?तो संबंध है।क्या आपने कभी सोचा कि जिस सूर के बाल वर्णन पर पूरी दुनिया मोहित है और उन्हीं सूरदास जी की रचनाओं को गाकर बालक कृष्ण की मोहिनी छवि अपने उर में धारती है,उन्हीं सूरदास जी ने जिन श्री कृष्ण की लीलाओं का गान किया वे कृष्ण उनके अपने पुत्र नहीं थे।क्या कभी उनकी रचनाओं को पढ़कर हममें से कोई भी महसूस कर पाता है कि कृष्ण उस कवि के अपने बालक नहीं थे।क्यों ऐसा है?ज़रा सोचिए क्योंकि ममता ,वात्सल्य यह सब भाव हैं जो किसी भी हृदय में जागृत हो सकते हैं।बस हृदय का रस सिक्त होना आवश्यक है।आजकल जब भी हमारे प्रधानमंत्री जनता को संबोधित करते हैं तो एक वात्सल्य,ममता का भाव उनके चेहरे पर दिखता है।अब वह अलग बात है कि बहुत से लोगों को कुछ भी दिखाई न देता हो सिवाय बुराइयों के।
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं जब कई अविवाहित लोगों ने अपने परिवार, समाज या देश के लिए ऐसे कार्य कर दिए कि यदि उनकी अपनी एक-दो औलादें होतीं भी तो शायद इतना त्याग,ममता और वात्सल्य न देखने को मिलता।
मदर टेरेसा का नाम लेते ही एक ऐसा चेहरा आंखों के सामने उभरता है जो वात्सल्य भाव से भरा पड़ा है।उन्होंने गरीब, बीमार,अनाथ और मरते हुए लोगों की मदद की।वे ममता की मूरत थीं।उनकी मान्यता थी कि “प्यार की भूख रोटी की भूख से कहीं बड़ी है।”क्या उनके कृत्यों को देखकर यह नहीं लगता कि उन्होंने दुनिया के सभी दीन दुखियों और बीमारों को अपना बच्चा ही समझा।
अन्ना हज़ारे के नाम को कौन नहीं जानता?राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बाद उन्होंने भूख हड़ताल और आमरण अनशन को सबसे ज़्यादा अपनाया।वे हम सबके आदर्श हैं।क्या उन्होंने व्यक्तित्व निर्माण के लिए मूल मंत्र देते हुए युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार विचार, निष्कलंक जीवन और त्याग की भावना विकसित करने के लिए जो बातें कही और सिर्फ कही ही नहीं वरन उन्हें अपने अथक प्रयासों से फलीभूत भी कराया,इन सबको देखकर कैसे कोई कह सकता है कि उनका विवाह नहीं हुआ और उनकी कोई औलाद नहीं है बल्कि देश के युवाओं के लिये उन्होंने जितना प्रयास किया उसे देखकर तो यही लगता है कि करोड़ों युवा उनके अपने ही बच्चे हैं।
उद्योग जगत की बात करें तो इस क्षेत्र में देश का सबसे माना हुआ उद्योग घराना टाटा समूह है।जिससे जुड़ी शख्सियत रतन टाटा भी अविवाहित हैं।परंतु उन्होंने हमेशा ऐसा व्यापार किया जिससे देश की जनता का भला हो।मुंबई आतंकी हमले के दौरान उनके पांच सितारा होटल को निशाना बनाया गया, तब भी उन्होंने पिता समान अपने कर्मचारियों की खुले हाथों से मदद की।वे स्वयं हर घायल के घर गए और परिजनों को ढांढस दिलाया।उन्होंने हमले में प्रभावित आसपास के ठेले वालों की भी मदद की।
हमारे पास ऐसी हस्तियों की कमी नहीं है जिन्होंने विवाह जैसे अटूट बंधन में न बंधकर समाज और देश की सेवा को ही अहम समझा।भारत रत्न ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के नाम को कौन नहीं जानता ?’मिसाइल मैन ऑफ इंडिया’ के नाम से मशहूर इन्होंने भारत के लिए पहला परमाणु बम बनाया।फिर भारत के राष्ट्रपति रहे।लेकिन इन सबसे बढ़कर उनका वह रूप अधिक प्रभावित करता है, जिसमें वे समाज सेवा द्वारा देश के एक-एक नागरिक से जुड़े।उनका कथन-
” आइये हम अपने आज का बलिदान कर दें ताकि हमारे बच्चों का कल बेहतर हो सके।”
क्या उनका यह एक कथन ही पर्याप्त नहीं है उनके ममत्व को दर्शाने के लिए।
ऐसे अनगिनत उदाहरण हमारे सामने आते रहते हैं जहां यह कहना मुश्किल हो जाता है कि ममता का क्या पैमाना है?समाज से यह गलत धारणा निकलनी चाहिए कि सिर्फ अपने एक या दो बच्चों की परवरिश करके ही कोई माता-पिता नहीं बन जाता बल्कि ममता न्यौछावर तो किसी पर भी की जा सकती है फिर चाहे वह अपने बुजुर्ग माता पिता या अन्य रिश्तेदार हों,या समाज के दीन दुखी हों या जो लोग देश के कर्णधार हैं तो उनके लिए देश की समस्त जनता ही उनके बच्चों के समान होती है।
सारगर्भित एवं सामयिक पोस्ट 👌
Very touching
निष्पक्ष और शोधपरक लेख।मेरे विचार से “वात्सल्य” भाव समस्त मनोभावों में सबसे उदात्त भाव है क्योंकि यह भाव आपका अपने से बड़े,छोटे,किसी पशु,पक्षी या अन्य जीव के लिए भी हो सकता है।