आज किसी भी न्यूज़ पेपर,टी.वी.डिबेट या आम परिचर्चा में कहीं पर भी देखिये तो सबसे बड़ा मुद्दा जो मुंह उठा कर खड़ा हो जाता है वह है धर्म।मैं यहाँ कुछ ऐसा नही लिखना चाहती कि जो विवाद का विषय बनता हो लेकिन कुछ ऐसी बातें होती हैं जो सोचने को मजबूर कर देती हैं कि धर्म क्या है?
धर्म से तात्पर्य है-धारण करना।जैसे हम किसी नियम को,व्रत को धारण करते हैं इत्यादि।धर्म शब्द में विभिन्न अर्थों का समावेश होता है।धर्म एक संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ बहुत व्यापक है जिस पर सत्य,बुद्धि,विवेक,चरित्र,शील,निष्ठां,सेवा,और नैतिकता आदि जैसे गुण पोषित और विकसित होते हैं परन्तु धर्म का मूल अर्थ आज जैसे खो सा गया है।अब केवल मान्यताएं और रूढ़ियाँ,पाखंड और कर्मकांड रह गये हैं।
आज कई ऐसी संस्थाएं हैं जो निस्संदेह धर्म के प्रचार-प्रसार और शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका अदा कर रही हैं पर यह संस्थाएं अपने उद्देश्य का कितना पालन कर रही हैं यही सोच का विषय है।2016 में मुझे हरिद्वार जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और वहां मैं शांतिकुंज गई।शांतिकुंज से सभी परिचित होंगे।आचार्य श्रीराम शर्मा एवं माता भगवती देवी शर्मा जी ने 1971में इसकी स्थापना की थी।मैंने वहां जो कुछ भी देखा उसे लिख कर मैं कोई विवाद का विषय न बनाना चाहती हूँ न मैं कोई इतनी विदुषी हूँ कि इतने विद्वान आचार्य या उनकी संस्था पर कुछ टिप्पणी कर सकूँ परन्तु जैसा कि मैंने अपनी website के about us में अपने ब्लॉग लेखन का उद्देश्य ही यह बताया है कि जो बातें किसी भी तरह से मुझे चुभन देती हैं उन्हें मैं आपके साथ साझा अवश्य करुँगी और हो सकता है कि मैं कही पर गलत भी हूँ तो मैं अपने पाठकों के विचार भी जानना चाहूंगी।यहाँ मैं उन्हीं पंक्तियों को यथावत दे रही हूँ जो वहां एक पम्फलेट के रूप में लोगों को बांटी जा रही थीं।यह पंक्तियाँ आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित वांग्मय-न.-68 पेज-1.41 से ली गई हैं।
इसमें आचार्यजी के द्वारा यह कहा गया है कि जीना भी एक कला है और इसे वे अपने विश्वविद्यालय शांतिकुंज में सिखाते है।यहाँ तक तो उनकी बात ठीक है।यह भी ठीक है कि सरकारी स्कूल कालेजों में भारी फीस का लोगों को बोझ सहना पड़ता है परन्तु उनका मानना है कि उन्होंने नालंदा-तक्षशिला की तर्ज़ पर यहाँ अपनी संस्था में बिना फीस लिए लोगों के कायाकल्प का बीड़ा उठाया है परन्तु उसके आगे उन्होंने जो पंक्तियाँ लिखीं उन्हें पढ़ कर मेरे मन में इतना रोष आया है कि मैं बयां नही कर सकती।उनके द्वारा लिखी पंक्तियाँ ही मैं दे रही हूँ “……..बुलाया केवल उन्ही को है,जो समर्थ हों,शरीर या मन से बूढ़े न हो गये हों,जिनमे क्षमता हो,जो पढ़े-लिखे हों।इस तरह के लोग आएंगे तो ठीक है,नही तो अपनी नानी को,दादी को,मौसी को,पड़ोसन को लेकर के यहाँ कबाड़खाना इकठ्ठा कर देंगे तो यह विश्वविद्यालय नही रहेगा।फिर तो यह धर्मशाला हो जाएगा,साक्षात् नरक हो जाएगा।इसे नरक मत बनाइये आप।जो लायक हों वे यहाँ की ट्रेनिंग प्राप्त करने आयें……प्रतिभावानों के लिए निमंत्रण है,बुड्ढों,अशिक्षितों,उजड्डों के लिए यहाँ स्थान नही है।आप कबाड़ख़ाने को लेकर आएँगे तो हम आपको दूसरे तरीके से रखेंगे,दूसरे दिन विदा कर देंगे।…….”
उन्होंने बार-बार बुड्ढों,अशिक्षितों को कबाड़खाना कहा और उनके आने से संस्था के नरक बनने की बात की।उन्हें यदि अपनी संस्था में युवा लोगों को ही शिक्षित करना है तो इस बात को दूसरे तरीके से भी कह सकते थे कि वे ही लोग यहाँ आएं जो यहाँ के नियमों का पालन कर सकें।मेरा तो यह मानना है कि आयु की कोई सीमा नही होती।कई बार वृद्ध लोग वह काम कर जाते हैं जो युवा नही कर पाते।इसलिए किसी को भी यह अधिकार नही है कि वह किसी की कमी या बेबसी की उसको सजा दे या उपहास उडाये।यदि शांतिकुंज के नियम इतने कठोर हैं कि आचार्य जी को यह लगता था कि सिर्फ युवा ही उनका पालन कर सकते हैं तो इस बात को ऐसे भी लिख सकते थे कि कृपया वे ही लोग आएं जो इन सब नियमों का पालन कर सकते हों अन्यथा यह कोई धर्मशाला नही है जहाँ सिर्फ आवास या भोजन की सुविधा होगी।ऐसे में जिन लोगों को ऐसा लगता कि वे इन कठोर नियमों का पालन नही कर सकेंगे,वे स्वयं ही न आते।हर स्कूल कालेज या किसी भी शिक्षण संस्था में प्रवेश के लिए एक आयु सीमा निर्धारित होती है परन्तु मैंने आज तक के अपने जीवन में किसी भी संस्था के बोर्ड पर या नियमों में यह नही पढ़ा या सुना कि इतनी आयु से ज़्यादा वाले लोग यहाँ कबाड़खाना बनाने न आएं या नरक बनाने न आएं।अपने आप आयु सीमा के निर्धारण के बाद उसके ऊपर आयु वर्ग के लोग वहां आवेदन ही नही करते।ऐसा ही यहाँ भी किया जा सकता था कोई ज़रूरी नही था कि इतने कठोर शब्दों का प्रयोग करके वृद्धों या कम पढ़े लिखे लोगों को उनकी मज़बूरी या कमी का एहसास कराया जाता।
मैंने इन सारी बातों की वहां लिखित आपत्ति दर्ज की।घर लौट आने के कुछ दिनों बाद संस्था के द्वारा मुझे एक फ़ोन आया जिसमें मुझे यह समझाने की कोशिश की गई कि गुरूजी ने लोगों को सबक सिखाने के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जैसे माँ अपने बच्चे से कठोर बोल कर उसको सुधारती है।परन्तु मैं इस बात के उत्तर में यह कहना चाहूंगी कि किसी भी माँ के लिए उसका कमज़ोर या असहाय बच्चा उसे सबसे प्रिय होता है।उसे वह सबसे ज़्यादा अपने सीने से लगाकर रखती है कबाड़खाना या नरक कहकर नकारती नही।कोई भी गुरु अपने सभी शिष्यों को बराबर ही समझेगा।यदि कोई वृद्ध या बीमार है तो उसे प्रेमपूर्वक समझा कर घर में ही बैठकर ध्यान पूजा करने की शिक्षा देगा न कि उसे कबाड़खाना या नरक का घर कहेगा।
हर धर्म में वृद्धों,असहायों की मदद या सेवा करने को ही परम धर्म कहा गया है। ऐसे में इतने बड़े गुरु यदि स्वयं वृद्धों के लिए ऐसी अमर्यादित भाषा का प्रयोग करेंगे तो उनके द्वारा शिक्षा प्राप्त लोग क्या करेंगे?इसका मुझे डर है।उन्होंने अशिक्षितों के लिए भी यही कहा कि उनके लिए यहाँ कोई स्थान नही है।मेरी समझ से तो कोई भी गुरु शिक्षा देते समय अपने सबसे अशिक्षित शिष्य को ही ज़्यादा ज्ञान देने की चेष्टा करता है।ऐसे में आचार्य शर्मा जी की पंक्तियाँ क्या सन्देश देती हैं यह एक बार आप सब भी विचार कर देखें।इतनी बड़ी संस्थाओं या उन्हें चलाने वाले गुरु की वाणियों में इतना अहंकार कैसे आ जाता है यह मेरे जैसा इन्सान तो समझ ही नही पाता।उस पर आश्चर्य यह कि जब मैंने इस बात को लेकर आपत्ति की तो वहां के ही किसी चेले द्वारा मुझे समझाया जा रहा है कि गुरूजी एक माँ की तरह शिष्यों को सबक सिखाने को ऐसा कठोर बोल रहे यानि किसी को भी इसमें कुछ बुरा नही लग रहा। क्या हमारे माता-पिता या अन्य वृद्धजन कबाड़खाना है?बस इस एक प्रश्न को हम सब अपने अन्दर सोचें तो लगेगा कि कितना गलत कहा गया है।
जज्बात मरते गये और हम पत्थर होते गये ।काश इंसानियत जिंदा हो और एक दूसरे का खुन पीने की जगह दर्द पीयें मानव।