‘तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती,नज़ारे हम क्या देखें’-वास्तव में यह गाना हम सबके चहेते कलाकार ऋषि जी ने गाया तो फ़िल्म की नायिका और असल ज़िन्दगी में उनकी हमसफ़र नीतू कपूर के लिए था लेकिन आज जब भी इन पंक्तियों को याद करती हूं तो दिल भर जाता है यह सोचकर कि एक ऐसा सच्चा कलाकार जिसके स्क्रीन पर आते ही वास्तव में उसके चेहरे से नज़रें हटती ही नहीं।कहाँ चला गया?कैसा दुर्योग कि एक साथ ही दो दिन के अंदर हमें इतने महान दो कलाकारों को खोना पड़ा।इरफान खान के बुधवार को जाने की खबर ने व्यथित कर डाला था।इतना महान कलाकार और इतनी कम उम्र में इतना कुछ हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री को देकर एक झटके से हाथ छुड़ा कर चला गया।इरफान खान का जाना ही हम सबके लिए असहनीय हो रहा था तो अगले दिन गुरुवार को सुबह जैसे ही टेलीविजन पर ऋषि जी के जाने की खबर आई,तो हृदय दुःख से विह्वल हो उठा।कैसा अद्भुत संयोग था कि 2013 में एक फ़िल्म आई थी ‘डी-डे’।इसमें ऋषि कपूर जी ने अपने अभिनय से लोगों को अचरज में डाल दिया था।इस फ़िल्म में उन्होंने गोल्डमैन जैसे दुर्दांत अपराधी का किरदार ऐसे निभाया कि विश्वास करना मुश्किल हो गया कि यह वही कलाकार है जिसकी इमेज एक लवर बॉय की थी।मेरे विचार से इतनी शिद्दत और सच्चाई से रोमांटिक और सीधे सरल तथा चुलबुले रोल निभाने वाले ऋषि जी शायद इस फ़िल्म उद्योग के अकेले कलाकार ही हैं तो दूसरी तरफ इसी डी-डे फ़िल्म में इरफान खान ने भी इतना दमदार रोल निभाया कि निस्संदेह उन्हें विश्वस्तरीय अभिनेता कहने में कोई संकोच नही होता।आज जब इस फ़िल्म के दृश्य देख रही हूं और बहुत सारे दृश्यों में ऋषि जी और इरफान जी साथ साथ अपने रोल सफलता पूर्वक निभाते दिख रहे हैं तो ऐसा लग रहा है कि जैसे दोनों कलाकारों ने एक साथ ही एक दिन के अंतराल पर चले जाने का अभिनय किया है लेकिन इस बार यह अभिनय कुछ ज़्यादा ही वास्तविक बन पड़ा।काश अपने जाने के रोल में आप दोनों इतना अच्छा अभिनय न कर पाते कुछ बनावट आ जाती और लौटकर आप हमारे साथ होते।परंतु यह काश शब्द ही हमें विवश कर देता है।’गाओ ओम शांति ओम’ यह गीत ऋषि जी की पहचान बन गया था और उसी शांति को निभाते हुए ही इन दोनों कलाकारों को जाना भी पड़ा क्योंकि जैसा कि हम सभी जान रहे हैं कि कोविड19 की महामारी के कारण लॉक डाउन है और ऐसे में इन महान कलाकारों के अंतिम दर्शन को भी उनके प्रशंसक तरस गए पर कोई बात नहीं वे अमर कलाकार तो हमारे हृदय में हमारी अंतिम सांसों तक जिंदा रहेंगे।एक बात मैं अब थोड़ा-सा विषय से हटकर भी करना चाहूंगी कि इस महामारी में बहुत से लोगों ने अपनी दिक्कतों को लेकर या अपने कोई भी व्यक्तिगत मुद्दों को लेकर सरकार,प्रशासन या जो लोग इस महामारी से निबटने में प्राण प्रण से लगे हुए हैं जैसे मेडिकल स्टाफ या पुलिस फ़ोर्स,उन सबको निशाना बनाया,उन्हें घेरा, पत्थरबाजी की और हर तरह से तंग करने की कोशिश की जिससे कितने निर्दोष लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी और इस बीमारी के बढ़ने की गति भी तीव्र हुई।हद तो तब हुई जब ऐसे आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों ने यह दलील दी कि उनपर अत्याचार हो रहे हैं लेकिन आज यह सोचकर हर व्यक्ति को देखना चाहिए कि कैसे इतने दिग्गज कलाकार जिनकी अंतिम यात्रा पर हजारों लोगों का सैलाब उमड़ पड़ता आज इतनी शांति से विदा हुए।उनके हर प्रशंसक के हृदय में यह व्यथा तो रहेगी ही।लेकिन ऋषि जी की बेटी जो दिल्ली में थी वह भी अपने पिता के अंतिम दर्शन न कर सकी।इसी तरह अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी के पिता का देहावसान हुआ तो हम सबने देखा कि वे भी उनके अंतिम दर्शन न कर सके।ऐसे में कुछ लोगों द्वारा यह सोचा जाना कि अत्याचार केवल उनपर ही हो रहा है, यह गलत है।इस वैश्विक महामारी ने तो हर इंसान को हिला कर रख दिया है।ऋषि जी की फिल्मों के साथ तो बचपन से ही कई यादें जुड़ी हुई हैं।मेरे घर में ही कई भाई-बहन ऐसे हैं जो ऋषि नीतू की जोड़ी को सबसे ज़्यादा पसंद करते हैं।इतना प्यारा जोड़ा तो फ़िल्म इंडस्ट्री में कोई दूसरा नही है।मुझे याद आ रहा है कि बचपन में हमलोग ‘मासूम’ फ़िल्म जिसमें शबाना आजमी और नसीरुद्दीन जी थे,उसे बहुत चाव से देखते थे।इस फ़िल्म में एक बाल कलाकार जो फ़िल्म में शबाना जी की बेटी बनी हुई थी,वह ऋषि यानि चिंटू जी की फिल्मों की दीवानी होती है और उनकी फिल्मों को ही हर समय देखना चाहती है।इससे खीझकर मां शबाना जी उससे कहती हैं कि ‘चिंटू तेरा मामा लगता है’।यह डायलॉग काफी है यह जताने को कि वास्तव में चिंटू जी का कितना क्रेज़ था हर उम्र के दर्शकों पर।इस फ़िल्म को देखकर हम सारे बच्चे यही सोचते थे कि चिंटू हमारा भी मामा है।यह होता है असली कलाकार होना।आज मन सारा दिन इतना भारी भारी सा रहा कि कुछ लिखने का भी मन नहीं हो रहा।आज जो कुछ भी शब्द मैंने लिखे हैं वह मेरे दिल की आवाज़ हैं।शायद हृदय का करुण क्रंदन हैं।जिसे हमने कभी देखा नही,कभी बात नही की,कभी मिले भी नही वह इतना दिल के करीब था ,इस बात का एहसास इन कलाकारों ने हमसे दूर जाकर करा दिया।ऋषि जी की फ़िल्म ‘दूसरा आदमी’ का यह गीत “चल कहीं दूर निकल जाएँ” वास्तव में उन्हीं पर चरितार्थ हो गया।हमसे दूर निकल गए और हम कुछ कर भी न सके।लेकिन यही तो है इस दुनिया में आने की मजबूरी कि हम किसी का आना जाना तो निर्धारित कर ही नहीं सकते।कितना भी ज्ञान कोई अर्जित कर ले लेकिन अपने किसी प्रिय के जाने का समय ऐसा व्यथित करता है कि हृदय टूट कर रह जाता है।संत कबीरदास ने कहा है कि ‘जो आता जाता है वही माया है।’ ‘आता जाता’शब्द उत्पत्ति और विनाश का सूचक है।अतः उत्पत्ति और विनाश के चक्र में घूमने वाले पदार्थ मायिक हैं।सभी वस्तुएं अनित्य हैं एवं माया के गर्भ में ही पोषित और नष्ट होती हैं।आज हम व्यथित हैं तो हमारे मन मे संसार की निस्सारता के प्रश्न भी उठ रहे हैं और हमें लग रहा है कि यह संसार क्या है?कोई भी किसी का नहीं है लेकिन कुछ पल बाद ही इतने अधिक दुःख, कष्ट और क्लेश सहने पर भी हम संसार के भोगों में लिप्त हो जाते हैं क्योंकि माया ने समस्त संसार को खाया हुआ है।हालांकि सभी संतों ने माया को मिथ्या ही माना है और संसार को माया मानकर मिथ्या कहा है।ऐसे संतों के विचार पढ़-सुनकर भी हम कुछ पल तो उन विचारों में रहते हैं लेकिन वास्तव में माया को ‘ठगिनी’, ‘डाकिनी’ शायद इसीलिए संतों ने कहा होगा क्योंकि अगले पल माया मोह का हमपर ऐसा पर्दा पड़ता है कि हम फिर उन्हीं सांसारिक बातों में उलझ जाते हैं और शायद यह माया मोह न होता तो सृष्टि का विकास होना तो दूर सृष्टि का अस्तित्व ही न नज़र आता।इसलिए ठीक है जैसे संसार चल रहा है उसे चलने देना चाहिए लेकिन यदि हम थोड़ा भी पढ़े लिखे और अपने को बुद्धिजीवी समझते हैं तो इतना तो अवश्य करना चाहिए कि ऐसे ‘चला चली के मेले’ देखकर अपने आप को थोड़ा निर्लिप्त करने का प्रयास करें और समाज मे,परिवार में या हमारे आस पास जो भी कुछ हो रहा है उसमें जितना हो सके अपना क्रियात्मक योगदान देने की कोशिश करें और यदि परिस्थितियोंवश इतना भी न कर सकें तो किसी को नुकसान पहुंचाने या ठेस पहुंचाने का कार्य न करें।आज इतने बड़े दो महान कलाकारों को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि इस समय जब इतना बड़ा संकटकाल हम सबपर चल रहा है और इस महामारी ने सब कुछ एकदम रोक कर रख दिया है और हम सब अपनी ज़िंदगी को भी लेकर संशय में हैं तो ऐसे में जितना भी हो सके किसी ज़रूरत मंद की मदद करें और वह भी न कर पाएं तो इतना तो अवश्य अपने परिवार, समाज और देश के लिए करें कि लॉक डाउन के नियमों का कड़ाई से पालन करें जिससे हमारा देश सुरक्षित रहे।
कलाकार,
सबके अन्दर थोड़ा-थोड़ा बस जाता है।
उसकी मौत पे पूरा शहर,
यूँ थोड़ा-थोड़ा मर जाता है।
हृदयस्पर्शी मार्मिक लेख।