सबसे पहले मैं सबको होली की हार्दिक शुभकामनाएँ देना चाहूंगी।वैसे देखा जाए तो बीते कुछ दिनों में जो कुछ इस देश में घटित हुआ है,हमारे इतने निर्दोष सैनिक शहीद हुए हैं और उनके परिवारों पर क्या-क्या नही बीता होगा?यह सब देखने के बाद तो जैसे सारे रंग ही फीके लगने लगे हैं और त्यौहार मनाना एक औपचारिकता-सा लगता है। उसपर एक बात जो सबसे ज़्यादा बुरी लगती है वह यह कि राजनीतिक दलों में जो वाक-युद्ध चल रहा है वह अब तो अपनी सारी हदें पार करता जा रहा है।होली का त्यौहार आते ही मुझे अपना बचपन और कॉलेज के दिन याद आ जाते हैं जब एक दूसरे को कई प्रकार की टाइटल दिए जाते थे और बुरा न मानो होली है कह कर बहुत कुछ कटाक्ष कर दिया जाता था।अपने से बड़ों को भी ऐसी बातें कही जाती थीं जो हलकी चुभन तो ज़रूर देती होंगी लेकिन किसी की कमियों का मजाक या व्यक्तिगत जीवन पर हमला नही बोला जाता था।पर अब तो क्या कहा जाए?आज मैंने टी.वी.चैनलों पर सुना कि देश के प्रधानमंत्री को निर्वंशी कहा जा रहा है।क्या शादी करके अपने एक-दो बच्चे हों तो तभी कोई व्यक्ति वंश वाला हो सकता है?क्या अगर पूरे देश को ही कोई अपना समझे और प्रत्येक व्यक्ति को अपना ही माने तो फिर भी वह निर्वंशी ही है।मैं कोई किसी राजनीतिक दल से सम्बन्ध नही रखती हूँ और राजनीतिक विषयों पर लिखने में मेरी कोई रूचि भी नही है लेकिन इस प्रकार की राजनीति मेरी तो समझ से परे है।मैं सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूंगी मदर टेरेसा का जिन्होंने हर इन्सान में अपना एक बच्चा देखा और उसकी सेवा की फिर चाहे वह बीमार,कोढ़ी या गरीब ही था तो ऐसे में जिस इन्सान का विवाह न हुआ हो उसे निर्वंशी कह देना कितनी ज़्यादा छोटी सोच का परिचायक है।फिर तो राजनीति में नरेन्द्र मोदी ही नही राहुल गाँधी,ममता बनर्जी,मायावती और भी न जाने कितने अविवाहित लोग मिल जाएँगे तो क्या सभी निर्वंशी ही हैं।कहने वाले लोगों को भी कोई शर्म नही और उस राजनीतिक दल के बड़े नेता भी जैसे ऐसी घटिया बयानबाज़ी करने वाले लोगों को प्रश्रय देते प्रतीत होते हैं।आजकल जो एक बात मुझे सबसे ज़्यादा व्यथित करती है वह यह है कि हमारे चरित्र,आदर्श सब कहाँ खो गये हैं?कुछ वर्षों पहले तक फिर भी इन शब्दों के कुछ मायने निकल आते थे लेकिन आज इन बातों का जैसे अस्तित्व ही खोता जा रहा है।हम भारतीय अपने चरित्र के कारण ही प्रसिद्ध थे।भाई का चरित्र लक्ष्मण और भरत जैसा,पुत्र राम जैसा,पत्नी सीता जैसी और देशभक्तों की तो एक लम्बी कतार थी इस देश में जो देश के लिए अपने परिवार तो क्या सर्वस्व देने को सदा ही तत्पर रहते थे।शिवाजी,रानी लक्ष्मीबाई,भगत सिंह,सुभाषचंद्र बोस,चंद्रशेखर आज़ाद और न जाने कितने नाम?आज भी ऐसा नही है कि हमारे दिल में देशभक्ति का जज़्बा बचा ही न हो क्योंकि अगर ऐसा हो तो सरहद पर अपनी जान गंवाने वालों की कमी पड़ जाए परन्तु ऐसा नही है।अपनी जान की परवाह न करते हुए देश के लिए हर पल अपने को समर्पित करने वालों से हम आप सभी परिचित हैं।अभी कुछ समय से हम अपने जवानों की शहादत को देख-देख कर व्याकुल हैं और शायद ही इस देश का कोई भी नागरिक होगा जिसने इन शहीदों के त्याग को देखकर अपनी आंखें नम न कीं हों।
परन्तु आज मुझे लगता है कि बुराई ज़्यादा सुनी जा रही है।किस मुंह से लोग संसद भवन उड़ाने वाले अफज़ल गुरु की जयकार मनाते हैं,मेमन की फांसी पर आंसू बहाते हैं और अभी बिलकुल नई चोट ऐसे लोग हमारे दिलों पर यह दे रहे हैं कि हमारी सेना ने जो सर्जिकल स्ट्राइक की उसी के सबूत मांग रहे हैं।फिर कहते हैं कि हम सेना का सम्मान करते हैं तो ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि यही सेना का सम्मान है कि उसके द्वारा कहे जाने के बाद भी कितने लोग मरे यह सबूत माँगा जा रहा है।अफज़ल गुरु और मेमन वह अपराधी हैं जिन्हें देश की सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा दी और देश के राष्ट्रपति ने भी जिन्हें माफ़ी नही दी तो क्या यह न्यायपालिका की अवमानना और राष्ट्रपति जी का अपमान नही है?फिर ऐसा करने वाले क्यों देशद्रोही नहीं?ऐसे लोगों का अपराध तो अक्षम्य है ही लेकिन उन लोगों का क्या किया जाए(कुछ राजनीतिक दल और उनके इतने वरिष्ठ नेता)जो इन अपराधियों के बचाव में न सिर्फ खड़े होते हैं बल्कि खुद भी ऐसे बयान देते हैं कि जिनसे अपने देश की छवि न सिर्फ धूमिल और कलंकित होती है बल्कि हमारे दुश्मन भी फायदा उठाते हैं।पाकिस्तान का मीडिया हमारे देश के ऐसे लोगों के बयानों को कैसे प्रस्तुत कर रहा है यह बात किसी से भी छुपी नही है।ऐसे लोग तो मैं कहती हूँ कि देश के नाम पर कलंक हैं।
जो लोग आतंकवाद के शिकार हो रहे हैं उनका दुःख देखकर दिल फटता है,छटपटाता है।ऐसे लोगों का दुःख हमारे राजनेताओं को क्यों नही दिखता है?उन्हें तो सिर्फ आदर्शवादी बातें करना आता है उनपर चलना नहीं।एक और अहम बात कि देश में कुछ भी गलत हो तो उसका ठीकरा सरकार और प्रशासन पर फोड़ दिया जाता है लेकिन सरकार कोई एक ऐसा जादू का हाथ नही है जो छूते ही लोगों का चरित्र निर्माण कर देगी।हमारा देश जो चारित्रिक दृष्टि से सबसे ज़्यादा सशक्त माना जाता था आज उसका सबसे ज़्यादा चारित्रिक पतन हो गया है।परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला माना जाता है जिसमे उसके चारित्रिक उत्थान की ज़िम्मेदारी माता-पिता पर निर्भर करती है परन्तु आज परिवार से क्या चरित्र निर्माण हो रहे हैं यह मुझे ज़्यादा बताने की ज़रूरत नही है।
जीवन में मन की शांति सबसे महत्वपूर्ण होती है लेकिन हमारी बढ़ती व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं और निरंतर बढ़ रहे अशांत माहौल में हमारी मन की शांति दुर्लभ होती जा रही है।मन की शांति के अभाव में सब कुछ होने के बावजूद हमें ऐसा लगता है कि हमारे पास कुछ भी नही है।यदि हम पूरे संसार में भी अपनी विजय पताका फहरा दें लेकिन मन की शान्ति के अभाव के कारण तब भी हमें ऐसा महसूस होता है कि अभी भी कुछ पाना शेष रह गया है।कहते हैं कि सम्राट अशोक को भी वास्तविक ख़ुशी नही मिली थी और तब उन्होंने मन की शांति के लिए धर्म का मार्ग चुना।मन की शांति मिल जाने के बाद हमें फिर किसी अन्य वस्तु की चाह नही रहती।ऐसे में हमारा यही प्रयास होना चाहिए कि हमारे द्वारा किये जा रहे कर्म से कुछ हासिल हो या न हो,लेकिन मन की शांति ज़रूर मिलनी चाहिए।
अभी पिछले महीने की ही बात है(18 फरवरी 2019)कि मैंने एक समाचारपत्र में यह पढ़ा कि लाखों रूपए का लालच देकर गरीबों की किडनी-लिवर बेचने वाले गिरोह का पुलिस ने पर्दाफाश किया है।पुलिस का कहना था कि इस गिरोह में पद्मश्री से सम्मानित एक डॉक्टर और कोलकाता,लखनऊ,दिल्ली और नोएडा के बड़े अस्पतालों के को-ओर्डीनेटर भी शामिल थे।अपने आप में शायद आपको यह न्यूज़ कोई बहुत बड़ी नही लगी होगी क्योंकि यह सब हमारे देश में आम हो गया है लेकिन मैं वास्तव में इसे पढ़ने के बाद कई दिनों तक यही सोचती रही कि यह हमारे चरित्र को,हमारी सोच को क्या हो गया है?भौतिक सुख-संसाधनों से हमें क्षणिक ख़ुशी ज़रूर मिलती है लेकिन मन की शांति नहीं।अधिक से अधिक धन एवं वैभव कमाने के चक्कर में ज़्यादातर मनुष्य अपने मन की शांति को दाँव पर लगा देते हैं और समस्याओं को स्वयं ही आमंत्रित करते हैं।जाने-अनजाने समस्याओं और चिंताओं से घिरे रहने की हमारी आदत के कारण ही हमारे मन में अशांति अपना घर बना लेती है।इसके विपरीत जो लोग वास्तव में मन की शांति के लिए प्रयासरत रहते हैं,वे भीड़ में भी अपने लिए एकांत की खोज कर लेते हैं।इस घटना में जब से मैंने यह पढ़ा है कि एक डॉक्टर पद्मश्री से भी सम्मानित है तो मन खीझ से भर जाता है कि ऐसे लोगों को और कितना चाहिए होता है कि इतना धन,सम्मान सब मिलने के बाद भी कौन सी ऐसी हसरत बाकी रह जाती है कि जिसके पीछे निर्दोष गरीब लोगों की जान से खेलने में भी इनको शर्म नही आती है।अब ऐसे में यह सब पढ़ कर आम जनता के मन में तो पद्म पुरस्कार पाने वाले लोगों के प्रति भी क्या सम्मान रह जाता होगा यह मुझे लिखने की आवश्यकता ही नही है।यह कोई एक उदाहरण नही है और भी क्षेत्रों के व्यक्ति जिन्हें ऐसे बड़े-बड़े पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया है लेकिन वे कितने प्रतिभाशाली हैं और अपनी प्रतिभा का कितना प्रयोग इस देश के लिए कर रहे हैं यह एक विचारणीय मुद्दा है।यह सब क्यों हो रहा है?इस पर सबको मनन करना चाहिए।यह इतना बड़ा कांड हुआ,इतने बड़े-बड़े डॉक्टर इसमें शामिल थे।मैं रोज़ इंतज़ार ही करती रह गई लेकिन उसके बाद मुझे इस बारे में किसी समाचारपत्र में कुछ भी पढ़ने को नही मिला और न ही टी.वी. पर कोई ब्रेकिंग न्यूज़ आई।आप समझते हैं कि ऐसा क्यों है?क्योंकि हम इन बातों के बल्कि इन हादसों के इतने आदी हो चुके हैं कि इस देश के लोगों को यह सब मामूली बातें लगती हैं।उन चंद लोगों के लिए यह सब जिंदगी-मौत का प्रश्न होता है जो इसे झेलते हैं लेकिन बाकी लोगों के लिए यह एक आम सी समस्या है जो अब है ही तो क्या किया जाए लेकिन यही भाव इस देश के लोगों के चरित्र का सत्यानाश कर रहा है।स्वार्थी प्रवृत्ति आज हावी होती जा रही है सब अपना साधने में लगे हैं दूसरे से कोई लेना-देना ही नहीं परन्तु हम यह न सोचें कि ऐसा करके हम अपना कुछ बना लेंगे बल्कि इतना ज़्यादा अपने लिए जीते-जीते हम खुद भी खुश रहना भूल जाते हैं।यही कारण है कि आज पैसा है,सुख-सुविधा है,भौतिक साधन हैं,मनोरंजन के अनेक साधन हैं लेकिन अगर कुछ नही है तो मन की शांति और ख़ुशी।इसे प्राप्त करने के लिए अपने चरित्र-निर्माण की ओर हमें अग्रसर होना पड़ेगा और चरित्र-निर्माण कोई ऐसी धारा या नियम नही है जिसे सरकार लागू करे अपितु यह तो हर व्यक्ति की व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है और इसके साथ ही उसकी परवरिश और संस्कारों पर। सिर्फ अपने लिए ही न जी कर थोड़ा-थोड़ा दूसरों के लिए जीना शुरू करें लेकिन दिल से यह नही कि कोई भारस्वरूप।सिर्फ अपना दुःख ही सोचने और देखने की प्रवृत्ति का भी नाश करना चाहिए।