एकता और भाईचारे का पर्व होली हम सबके जीवन में उमंग लाये,प्यार और सद्भाव लाये यही ईश्वर से कामना है।बसंत को ऋतुराज कहा जाता है।पतझर के जाते ही बसंत का आगमन होता है।बसंत के दिन ही जब अरंड के पेड़ का डंडा जगह-जगह गाड़ा जाता है तो होली को निमंत्रण मिल जाता है।होली शास्त्र की नहीं ज़मीन की परम्परा है।शहरों में चाहे अब यह चीज़ें कम हो गई हों लेकिन गांवों में अभी भी फाग,अबीर,जोगिया और कबीर सब मिलजुल कर आपसी भेदभाव को भुलाकर गाते हैं।मेरे विचार से होली ही एक मात्र ऐसा पर्व है जो सारे प्रतिबन्ध तोड़कर सिर्फ दिल के रिश्ते जोड़ कर मनाया जाता है।
होली का रंग जो आजकल महानगरीय संस्कृति में थोड़ा बदल गया है लेकिन गांव देहात में काफी हद तक अभी भी वही सब परम्पराएं चली आ रही हैं।मुझे अपने बचपन का समय याद आता है जब होलिकादहन के लिए लकड़ियाँ इकठ्ठा की जाती थीं।हम सब बच्चे भी बड़े भाईयों और बाकी के लोगों के पीछे लगकर लकड़ियाँ इकठ्ठा करते थे।घर-घर घूमकर एकत्रित हुई लकड़ी से सार्वजनिक स्थल पर जब होलिकादहन होता था तब उस ख़ुशी का कोई पारावार ही नहीं होता था।अगले दिन आपस में रंगों की बौछार और गालों से लेकर चरणों तक अबीर-गुलाल का स्पर्श,यह पूरा त्यौहार प्रतीकात्मक और प्रेरक है।अनावश्यक और हानि पहुँचाने वाली वस्तुओं का नाश कर देने को हिन्दू धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण समझा जाता है।हमारे हर पर्व त्यौहार का कोई न कोई प्रतीकात्मक उद्देश्य निकलता ही है।होली का पर्व भी ऐसा ही है।हम सभी जानते हैं कि मार्ग में फैले हुए कांटे,शूल और झाड़-झंखाड़ समाज की कठिनाइयों को बढ़ाते हैं और कष्ट देते हैं इसलिए ऐसे तत्वों को समाप्त करने की परम्परा हमारे धर्म में रही है।तभी तो प्रत्येक वर्ष होली पर हम सब मिल-जुल कर रास्तों में पड़े हुए कटीले और अनावश्यक झाड़-झंखाड़ों को इकठ्ठा करते हैं और उन्हें जलाकर आनंदित होते हैं।तभी तो जिस भी घर से जलने की सामग्री उठाई जाती है तो कोई भी नाराज़ नहीं होता क्योंकि उसे लगता है कि इस लकड़ी के रूप में इस घर के कष्ट और दुःख जलने के लिए चले गये हैं।
हमारा हर त्यौहार सद्भाव,जागरूकता और क्रियाशीलता का सन्देश देता है।होली का यह सन्देश है कि हम अपनी भीतरी और बाहरी गंदगी को साफ़ कर दें।मानसिक,सामाजिक और राजनीतिक विकृति और विकार जो हमारे मार्ग में हैं उन्हें हम सब मिलजुल कर सामने लायें और उनमे आग लगाकर उनका नाश करें तथा पूरे उल्लास के साथ उत्सव मनाएं।तभी रात को होलिकादहन करने के बाद अगले दिन ख़ुशी-ख़ुशी रंग खेला जाता है और गुझिया तथा अन्य स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं और हर्ष के साथ एक दूसरे को खिलाए जाते हैं।होली मनाने का यही वास्तविक तरीका है।कीचड़,मिट्टी आदि एक दूसरे पर फेंकना और अश्लील भाषा का प्रयोग करना यह सब तो इस त्यौहार के रंग को ही फीका कर देते हैं।इसलिए हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी त्यौहार में जितना भी हो सके हम रंग भरें न कि उसे बदरंग कर दें।
यह पर्व ऐसा भी सन्देश देता है कि अहंकार और दर्प जैसी बुराइयों का शमन कर पिछली सभी हताशा-निराशा को उल्लास के नये रंग से रंग डालना चाहिए।तभी इस त्यौहार का वास्तविक उद्देश्य सार्थक होगा।भारतीय परम्परा में राधा संग श्री कृष्ण ही नहीं,पार्वती संग प्रलय के देवता महादेव तक को रंग-धार छोड़ती पिचकारी पकड़े होली के महानायकों के रूप में वर्णित किया गया है।यह हमारी संस्कृति और परम्परा की सशक्तता ही है कि होली के गीतों की धुन कानों में पड़ते ही आँखों के सामने द्वापर युग की मथुरा का चित्र जीवंत हो उठता है।
होली के रंगीन छींटों से हमारा इतिहास भी रंगा हुआ है।मध्यकाल में मुस्लिम शासकों से लेकर सूफी संतों तक सभी होली के सुरूर में डूबे रहे हैं।जोधाबाई के साथ सम्राट अकबर और नूरजहाँ के साथ जहाँगीर के होली खेलने का ज़िक्र बहुत प्रसिद्ध है।होली हमेशा से हमारे बहुरंगी समाज में समरसता का पर्व रही है।आज भी हमें इस परम्परा को मजबूती देने की आवश्यकता है।
होली की पौराणिक कथाएँ जीवन को उर्जा और नैतिक बल से भर देने वाली हैं।असुर शासक हिरण्याकश्यप के अहंकार का चित्रण आज भी दिल दहला देता है।उसने अपनी शक्ति के आगे सबको अस्वीकार कर दिया था और स्वयं को ही ईश्वर घोषित कर दिया।उसके लिए उसका पुत्र प्रहलाद ही चुनौती बन गया।प्रहलाद ने अपने पिता के अहंकार को ललकार दिया और विष्णु-आराधना की निरंतरता बाधित नहीं होने दी।इन सब बातों से क्रोधित हिरण्याकश्यप ने अपने पुत्र को मारने के कई उपाय कर डाले परन्तु उसे सफलता नहीं मिली।अंत में अपनी बहन होलिका को उसने बुलाया।होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था।होलिका ने हिरण्याकश्यप के आदेशानुसार प्रह्लाद को गोद में बैठाया और धधकती अग्नि में प्रवेश किया।अग्नि ने प्रह्लाद को छोड़ होलिका को ही भस्म कर डाला।होलिका को अग्नि में न जल पाने का वरदान उसके स्वयं के लिए था किसी अन्य के संग अग्नि-प्रवेश से यह वरदान उलट गया।इस तरह होलिका का जलकर भस्म होना उसके अहंकार और हिरण्याकश्यप के दर्प के विनाश का प्रतीक बना।
दूसरी कथा द्वापर की है।मान्यता है कि बालक श्री कृष्ण ने फाल्गुन पूर्णिमा की इसी तिथि को दम्भी कंस द्वारा भेजी गयी राक्षसी पूतना का वध किया था,जो उन्हें ही मारने आई थी।यहाँ भी कंस का दर्प और पूतना का अहंकार विनष्ट हुआ।ग्वालों ने प्रसन्न होकर गोपियों के साथ रासलीला रचाई और रंग खेला जो बाद में प्रत्येक वर्ष उत्सव के रूप में मनाई जाने लगी।मनु-स्मृति के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा को ही मनु की जन्म-तिथि है,इसलिए यह होली के रूप में मनाये जाने की परम्परा बनी।
संक्षेप में यही कहना उचित होगा कि वजह चाहे जो भी हो इस उत्सव को मनाने की परन्तु हर वजह यही संकेत देती है कि अहंकार और दर्प का त्याग कर आपसी भाईचारे और सद्भावना के साथ सबकी खुशियों का ध्यान रखते हुए ही इस त्यौहार को मनाना चाहिए जैसा कि युगों-युगों से होता आया है और यही आज के समय की भी आवश्यकता है।
सौहार्द और सद्भभावना के त्यौहार होली का वास्तविक चित्रण