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स्वर्णिम छवि

ऐसा माना जाता है, कि साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक होता है। गूढ़ विषयों को सरल मानदंड लेकर आम आदमी के सामने प्रस्तुत करना, साहित्यकार के कर्तव्य में आता है। जितना उचित मंथन, उतनी ही सही दिशा समाज के लिए तय हो जाती है और जितना सटीक चिंतन, समाज की उतनी ही संतुलित मानसिकता स्थापित होती है, परंतु साहित्यकार के लिए एक बंधन यह होता है, कि वह जिस देश काल, जिस विधा, जिस भाषा में लिखता है, साधारणतया उसकी पहुंच वहीं तक सीमित हो जाती है। और, अगर कोई अनेक भाषा में लिखे तो? जरा सोचिए, उसके चिंतन, मनन एवं मंथन का कितना वृहद क्षितिज होगा। एक साथ कितने समाज कितने लोगों का मार्गदर्शन कर पाएगा? एक साथ कितनी विचारधाराओं को चिंतन से संलग्न कर पाएगा। आखिर, टकराव विभिन्न विचारधाराओं का ही तो है, और अगर कोई साहित्यकार विभिन्न विचारधाराओं को एक मंच पर लेकर आ सके तो वह एक उपलब्धि से कम नहीं। अखिर यह गुण किसी भी लेखक में यूं ही नहीं पाया जाता और ऐसे ही गुण से ओत प्रोत लेखिका हैं, आदरणीया स्वर्ण ज्योति जी।

आप वो रचनाकार हैं, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं, फिर भी आपने हिंदी लेखन में उच्च कोटि का साहित्य रचा है। लेखन हिंदी में किया, परंतु अनुवाद अनेक भाषाओं में किये हैं। चिंतन एक परंपरा का, मंथन दूसरी संस्कृति का और मनन पूरे हिंदुस्तान के समाज के लिए। आपने भाषाओं की परिधि को तोड़ा है, उनकी सीमाओं को समाप्त किया है। अक्सर यह विवाद का विषय रहा है, कि कौन सी भाषा का साहित्य श्रेष्ठ है। आपने इस सत्य को स्थापित किया है कि श्रेष्ठता नाम से नहीं होती, विचारधारा से होती है। आपने इस बात को भी स्थापित किया है, कि हर परंपरा की विचारधारा अपने आप में उच्च कोटि की होती है। आवश्यकता इस बात की होती है कि उच्च कोटि के विचारों को आपस में किस तरह एक साथ लाया जाए ?

यूं तो, एक धारा दूसरी धारा से मिल नहीं पाती। विभिन्न विचारधाराओं की धारा भी इसी तरह ही है। लोग हिंदी की सार्थकता पर सवाल उठाते रहते हैं। क्षेत्रीय भाषाओं से इसके टकराव पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहते हैं। पर आपने, इस टकराव को निर्मूल कर दिया। आपका मानना है कि हिंदी इन विचारधाराओं को जोड़ने वाला एक सेतु है। आप हिंदी के माध्यम से अनेक विचारधाराओं से, अनेक भाषाओं के साहित्य से जुड़ सकते हैं। या यूं कहिए की आप सागर की दृष्टि से विभिन्न धाराओं की सार्थकता को पहचान सकते हैं। आखिर सागर का अस्तित्व भी इन धाराओं से ही तो है और भारतीयता का अस्तित्व विभिन्न भाषा के साहित्य से। इन भाषाओं की कड़ी है, हिंदी।

यह विचारणीय है कि किस तरह सारे भाषा आधारित भेदभाव अपने आप समाप्त हो सकते हैं। आज हम इस कार्यक्रम के माध्यम से इन विदुषी का सम्मान कर रहे हैं। उन्होंने अनुवाद एवं बहुभाषी लेखन के माध्यम से विभिन्न विचारधाराओं को जोड़ा है। उन्होंने हिंदी लेखन के माध्यम से विभिन्न विचारधाराओं को एक मंच पर लाने का सफल प्रयास किया है।

मुझे नहीं पता कि ‘सिरी भूवलय’ के बारे में कितने लोगों को पता है। ‘सिरी भूवलय’ एक ऐसा प्राचीन ग्रंथ है जो अंको की भाषा में लिखा गया है। अंको की भाषा में एक ग्रंथ! जी हां, अंको की भाषा में। है ना आश्चर्य की बात? यह ग्रंथ विश्व का एकमात्र अंक काव्य है। अब सोचिए अंकों की भाषा का ग्रंथ ही अगर आश्चर्य है तो उसका अनुवाद कितना विस्मयकारी रहा होगा। वह तो शायद एक अजूबा ही लगे और यह अजूबा किया है आदरणीय स्वर्ण ज्योति जी ने। जी हां, अंक काव्य। अंकों की भाषा में लिखा ग्रंथ, और उसके अनुवाद का कीर्तिमान आदरणीय स्वर्ण ज्योति जी के नाम ही दर्ज है। आपने पुरातन साहित्य को आधुनिक साहित्य से इतनी सरलता से जोड़ा है कि इसकी विकटता का अंदाज लगाना आम आदमी ही नहीं अपितु गुणी जनों की परिधि में भी नहीं आता। ऐसे ग्रंथ पढ़ने के अवसर मिलते नहीं है, ढूंढे जाते हैं। ढूंढिए इस ग्रंथ को और जानिए आदरणीय स्वर्ण ज्योति जी की विलक्षण गहराई को।
आदरणीया स्वर्ण ज्योति जी पहचान हैं, भारतीय साहित्य की, न कि मात्र भाषाओं के साहित्य की। अगर आप स्वर्ण ज्योति जी को पढ़ते हैं, तो आप भारतीय साहित्य को पढ़ते हैं। जो भाषाओं की सीमाओं को तोड़कर कहीं ऊंचे स्तर पर स्थापित हो चुका है। आप लेखक के लेखन को एक खुली किताब की तरह मानती हैं।
उनकी एक कविता की पंक्तियों के सार में, इतना ही कहा जा सकता है कि जब एक लेखक एक रचना बनाता है तो उसके अनेक अर्थ होते हैं। एक शब्दार्थ जिससे रचना से साक्षात्कार होता है। भाव की दृष्टि से उसके मन को और उसके अर्थ के माध्यम से उसके मस्तिष्क को। स्वर्ण ज्योति जी के शब्दों में, जब हम एक कविता को पढ़ते हैं, हम एक विचार को भी पढ़ते हैं, हम संस्कार को भी पढ़ते हैं।उनकी कविता और उसके भावों को पढ़िए –

इस कविता में अभिधा शब्द शक्ति के अनुसार “मैं” अर्थात व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित कविता लगती है। परंतु कवियित्री के अनुसार यहाँ “मैं” शब्द का लक्षणार्थ या व्यंजनार्थ अर्थ नारी और ज़िंदगी से है। कविता की खूबी यही है कि अभिधा की दृष्टि से भी यह सुंदर रचना है और लक्षणा और व्यंजनार्थ भी सुंदर रचना है।

“खुली किताब”

एक खुली किताब हूँ मैं,
जिधर से भी पढ़ो,
समझ में आ जाऊंगी,
शर्त ये है मगर तुम्हें,
पढ़ना आना चाहिए।

चेहरे को देखोगे तो
खो जाओगे,
शब्दो को ढूंढोगे
तो पछताओगे,
भावों को बूझोगे
तो उलझ जाओगे,
न आँखों देखी
न कानों सुनी,
ऐसी बात हूँ मैं।

लफ़्ज़- लफ़्ज़ में
गहरे अर्थ छिपाएं हूँ मैं,
सफ़े -सफ़े में
ज़िन्दगी बसाएं हूँ मैं,
हर एक एहसास हूँ मैं
जीने की आस हूँ मैं,
समझो तो पास हूँ मैं
वरना एक राज़ हूँ मैं।

फिर भी एक खुली
किताब हूँ मैं।।

सामाजिक आचार इस से ही स्थापित होता है।किसी भी रचना के शब्द अनायास ही नहीं बन पड़ते हैं। जो शब्द बिखर जाते हैं, उनका कोई अर्थ या विषय नहीं होता । परंतु जो रचना मंथन करके लिखी जाती है, वह अपने आप में एक परंपरा बन जाती है। जब एक भाषा के साहित्य को, लेखक के मंथन को पढ़ते हैं, तब आप संस्कारों को पढ़ते हैं ना कि सिर्फ शब्दों को। स्वर्ण ज्योति जी के साहित्य में आप स्पष्ट देख सकते हैं कि जब आप उस रचनाकार को पढ़ते हैं, तब आप एक मस्तिष्क को भी पढ़ पाते हैं। और इससे आपको उस तरह का मार्गदर्शन मिलता है।
अगर आप एक साहित्य को समझते हैं, तब कितने गुणों को भी एक साथ आप समझते हैं। आपके लेखन ने साहित्य को बहु आयाम दिए हैं। इस विचार को लेकर चलें तो स्वर्ण ज्योति जी के शब्दों की सार्थकता समझ आती है। अगर यह विचार हर व्यक्ति समझ जाए कि हिंदी एक सेतु के माध्यम से अनेक भाषाओं को जोड़ती है, तो कितना विशाल सागर निर्मित होता है। इसकी कल्पना कीजिए, फिर देखिए हमारे भारतवर्ष का साहित्य किस तरह लहरों की तरंगों पर उछलकर उमड़ पड़ेगा।
जब हम स्वर्ण ज्योति जी को पढ़ते हैं, तब साहित्य को पढ़ने की विधा भी सीखते हैं। सहित्य लिखना तो एक विधा है, लेकिन साहित्य सही से पढ़ना भी एक विधा है। कभी सोचा इस तरह से?

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