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स्वतंत्रता संग्राम का बिसरा पहलू

   

 – अजय “आवारा”

अहिंसा की शिक्षा भारत के लिए कोई नई बात नहीं है।सिर्फ बौद्ध और जैन धर्म में ही नहीं, अहिंसा की महिमा उनसे पहले उपनिषदों में भी गाई गई थी।कहा जा सकता है कि अहिंसा भारत की सभ्यता का सार है।इसमें कोई संशय नहीं कि अहिंसा का उपदेश भारत में इतने दिनों से दिया जा रहा है कि विश्व में भारत को अहिंसा और निवृत्ति का देश माना जाने लगा।
परन्तु इतना सब होते हुए भी, आधुनिक भारत में अहिंसा का प्रवर्तक महात्मा गांधी को ही माना जाता है।

30 जनवरी सन 1948 के दिन महात्मा गांधी ने अंतिम सांसे लीं और इसी माह की 23 तारीख को हम नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी का जन्मदिन मनाते हैं।सुभाष चंद्र बोस जी ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1941 में भारत से बाहर जाकर आज़ादी की लड़ाई छेड़ी।उनकी लड़ाई अंग्रेजों की अपेक्षा उनकी उस मानसिकता से अधिक थी, जो भारतीयों को दास के रूप में देखती थी।अंग्रेजों की ग़ुलामी नेताजी को किसी भी हाल में स्वीकार नहीं थी।
महात्मा गांधी और कांग्रेस चाहते थे कि भारत को अहिंसा के पथ पर चरणबद्ध तरीके से स्वतंत्रता मिले, लेकिन सुभाष चंद्र बोस जी का मानना था कि इस तरह देश को कभी आज़ादी नहीं मिल सकती।यदि देश को आज़ाद कराना है तो अंग्रेजों से सीधे मुकाबला करना होगा ।उन्होंने आज़ाद हिंद फौज की स्थापना की।


यह भी सच है कि सुभाष चंद्र बोस जी ने महात्मा गांधी को हमेशा पूरा आदर दिया, वे ऐसे पहले व्यक्ति थे,जिन्होंने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा।
निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमें आज़ादी केवल अहिंसा के चलते ही नहीं मिली, इसे पाने में नेताजी और गाँधीजी दोनों की ही भूमिका महत्वपूर्ण थी और किसी के भी योगदान को कम करके आंकना सही नहीं है।
इसीलिए जनवरी माह के हमारे कार्यक्रम में मैं इन्हीं दोनों महान विभूतियों के विषय मे चर्चा करूंगा।हमारा उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति के योगदान में किसी के महत्व को भी कम करके आंकना नहीं है, बल्कि कुछ बातें जो हमेशा एक चुभन देती रहीं हैं, उन्हीं पर एक विश्लेषण करने का प्रयास किया जाएगा।
मेरी तरह आप सबके मन में भी यह प्रश्न उठता ही होगा कि क्या गांधीवाद के अनुसरण में हमने क्रांतिकारियों के योगदान को उचित सम्मान नहीं दिया ?
मुझे लगता है कि किसी भी शासन की शक्ति वहां की प्रजा के सहयोग और सामरिक दोनों रूपों में होती है, यदि सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों को सामरिक रूप से कमजोर नहीं करते तो शायद गाँधीजी का असहयोग आंदोलन प्रभावी नहीं होता।
इसलिए आज हम इस विषय पर ही बात करेंगे।

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