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तुलसीदास कुछ नहीं,केवल रत्ना के शब्दों का चमत्कार

लोकहित तथा लोक-धर्म के कट्टर समर्थक गोस्वामी तुलसीदास जी के नाम को,ऐसा कोई भी नहीं होगा जो न जानता हो।कलयुग में राम कथा के विस्तारक तथा उन्नायक तुलसीदास जी की रचनाओं में मर्यादा तथा औचित्य का सर्वत्र प्रत्येक पग पर ध्यान रखा गया है।हिंदी साहित्य-संसार में गोस्वामी तुलसीदास जी के ऊपर बहुत शोध-कार्य किये गये हैं और आज भी यह कार्य जारी है और लगता तो यही है कि अनंत काल तक ऐसा ही चलता रहेगा क्योंकि तुलसी-साहित्य में सर्वत्र ही काव्य-कला की रमणीयता पाई जाती है।उनके ग्रंथों को जितना पढ़ा जाए,हर बार नव्यता का स्फुरण होता है। ‘नव्यता’ की यह अनुभूति उनके ग्रंथों की रमणीयता का प्रमाण है परन्तु आज अपने इस लेख में मैं गोस्वामी तुलसीदास जी के बारे में चर्चा न करके उनकी पत्नी रत्नावली के बारे में कुछ कहना चाहूंगी क्योंकि जैसा कि मैंने अपने ब्लॉग लेखन के उद्देश्य में ही स्पष्ट तौर पर लिखा है कि मेरा प्रथम प्रयास यह होगा कि ऐसे कवि और साहित्यकार,जिनकी रचनाएँ अनमोल और अद्वितीय तो हैं,परन्तु कुछ कारणों से जिन पर अधिक प्रकाश नहीं डाला जा सका,ऐसे साहित्यकारों को आगे लाना और हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को उन पर अधिक से अधिक अध्ययन और शोध-कार्य आदि के लिए प्रेरित करना।

“तुलसीदास कुछ नहीं हैं,वह तो केवल रत्ना के शब्दों का चमत्कार हैं।” डॉ.रांगेय राघव ने अपने उपन्यास ‘रत्ना की बात’ में स्वयं गोस्वामी तुलसीदास से जो उपन्यास के नायक हैं,यह शब्द कहलवाए हैं।इन शब्दों में जैसे तुलसीदास का सम्पूर्ण जीवन समा गया है।एक सामान्य गृहस्थ,कथावाचक ब्राह्मण एवं स्त्री के प्रति हद से ज़्यादा अनुरक्त ‘रामबोले तुलसी’ को रामचरित मानस सरीखे विश्वविख्यात महाकाव्य का रचयिता,राम का परम भक्त एवं ‘महाकवि गोस्वामी तुलसीदास’ बनाने वाली और कोई नहीं,उनकी पत्नी रत्नावली ही थी।गोस्वामी जी का विवाह दीनबंधु पाठक की कन्या रत्नावली से हुआ था।कहते हैं कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी को बेहद प्यार करते थे।एक बार उनकी अनुपस्थिति में वह मायके चली गईं और तुलसीदास जी विरह से व्यथित हो गये।वर्षा-जल से भरी नदी को पार करके आधी रात को वे अपनी ससुराल पहुँच गये।कपाट बंद थे और ऐसी किम्वदंती है कि खिड़की से एक सांप लटक रहा था और उसे ही पकड़कर वे अपनी पत्नी के पास अन्दर चले गये।अपने पति को अर्द्धरात्रि में सम्मुख देखकर रत्नावली अचंभित हो गयी। “लाज न आई आपको दौरे आएहु साथ” कहकर उसने पति को एक तरह से बेशर्म ही कह डाला।नाराजगी जताते हुए वह बोली,

“अस्थि-चर्ममय देह मम,तामे ऐसी प्रीति,

ऐसी जो स्री राम में,होती न तो भवभीति।”

रत्नावली के यह शब्द तुलसीदास जी के ह्रदय में गहरे उतर गये।उन्हें आंतरिक दृष्टि प्राप्त हो गई।तत्क्षण उनका दाम्पत्य-प्रेम राम-भक्ति में परिणत हो गया।वे सर्वस्व परित्याग कर काशी कूच कर गये।मोह-माया को विस्मृत कर तुलसी राममय हो गये और कहा जा सकता है कि इनकी भावधारा सहसा लौकिक विषयों से विमुख होकर प्रभु-प्रेम की ओर उन्मुख हो गयी।

रत्नावली ने निजी सुखों की आहुति देकर अपने पति को साधारण गृहस्थ से महाकवि का पद दिलवाया,लेकिन इसके बदले में उसे बहुत कष्ट झेलने पड़े।सत्ताईस वर्ष की युवावस्था में ही वह परित्यक्ता का अभिशप्त जीवन ढोने के लिए विवश हो गई।उस समय परित्यक्ता के रूप में रत्नावली को कितनी उपेक्षा सहनी पड़ी होगी,यह कल्पनातीत है।पति द्वारा घर छोड़कर चले जाने पर उसने सारे सांसारिक सुखों को त्याग दिया और सन्यासिनी का-सा जीवन व्यतीत करने लगी।पति के ईश्वरानुरागी बन जाने का उसे हार्दिक संतोष था परन्तु साथ ही एक अफ़सोस हमेशा उसके ह्रदय को पीड़ा देता रहता था कि कहीं उसने पति को गलत तो नहीं कह दिया,वे उससे रुष्ट तो नहीं और पुनः उससे मिलने के लिए आएँगे भी या नहीं।

हम सभी रत्नावली के सम्बन्ध में इतना ही जानते हैं कि वह महाकवि तुलसीदास की पत्नी थीं और तुलसी उसके शब्दों से बिंधकर संसार से विरत हो गये परन्तु रत्नावली अपने दर्द को शब्दों में पिरोना भी जानती थी और पति के विरह ने उसे कवयित्री बना दिया था,यह बात हममें से बहुत ही कम लोगों को ज्ञात है।इसी तरह अभी कुछ दिनों पहले जब मैंने मुंशी प्रेमचंद जी के ऊपर लेख लिखा तो मुझे ज्ञात हुआ कि उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शिवरानी देवी भी विदुषी स्त्री थीं और उन्होंने भी कहानियां लिखीं।उनकी कहानियों के संग्रह ‘नारी ह्रदय’ और दूसरा ‘सिंदूर की रक्षा’ नाम से प्रकाशित हुआ।मेरी कोशिश रहेगी कि शिवरानी देवी ने भी जो साहित्य की सेवा की उसको जितना भी हो सके अपने पाठकों तक पहुंचाऊं क्योंकि कई बार देखा जाता है कि यदि पति या पत्नी में से कोई एक इतना ज़्यादा प्रसिद्ध हो जाता है तो दूसरे के कार्य और क्षमता थोड़ा दब कर रह जाती है।वैसे गोस्वामी तुलसीदास और प्रेमचंद जी के कार्य और उनके हिंदी साहित्य को योगदान के बारे में किसी को भी कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है लेकिन उनकी पत्नियों के द्वारा की गई हिंदी-साहित्य की सेवा को भी नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए।

तुलसीदास जी संवत 1604 में घर से निकले थे।रत्नावली तब से लेकर संवत 1651 में इस संसार से कूच करने तक सन्यासिनी का जीवन व्यतीत करती रही।उसने लगभग 47 वर्षों तक परित्यक्ता जीवन ढोया।प.रामदत्त भारद्वाज ने अपनी पुस्तक ‘रत्नावली’ में लिखा है कि उस विरहणी ने 201 दोहे रचे और इनमें उसका पश्चाताप मुखर हुआ है।उसका दोष इतना ही था कि दाम्पत्य-प्रेम के समय उसने असावधानीवश भगवद-प्रेम की चर्चा छेड़ दी थी।वह कहती है-

सुभहु वचन अप्रकृत गरल,

    रतन प्रकृत के साथ।

जो मो कंह पति प्रेम संग,

      ईस प्रेम की गाथ।।

   हई सहज ही हौं कहौ,

     लह्यो बोध हिरदेस।

  हौं रत्नावलि जचि गई,

   पिय-हिय काच बिसेस।।

वह बराबर अपराध-बोध से ग्रस्त है।वह पति से क्षमा मांग रही है और उनकी प्रतीक्षा में बेचैन है-

छमा करहुं अपराध सब,

   अपराधिनी के आय।

  बुरी भली हों आपकी,

  तजऊ न,लेउ निभाय।।

रत्नावली पति को वचन दे रही है कि वह कभी उन्हें उपालंभ नहीं देगी कि वह उसे छोड़कर क्यों चले गये थे?वह अब बिलकुल मौन रहेगी –

नाथ रहौंगी मौन हौ,

          धारहु पिय जिय तोस।

कबहुं न देऊन उराहनों,

           दऊँ न कबहुं दोस।।

पति की निष्ठुरता ने उसे निराश कर दिया।पति-दर्शन को बावरी वह अपने को हत्भाग मानने लगती है।वह अपने को धिक्कारती है कि उसके वचनों ने पति को वैरागी बना दिया और वह अपनी करनी का फल भोगती हुई उनकी प्रतीक्षा में कौवे उड़ा रही है-

कहाँ हमारे भाग अस,

              जो पिय दर्शन देई।

वाहि पाछिली दीठि सों

               एक बार लखि लेई।।

धिक् मो कहं मो वचन लगि

             मो पति लह्यो विराग।

भई वियोगिनि निज करनि,

                रहूं उडावति काग।।

रत्नावली स्त्री के लिए पति को ही अंतिम शरण मानती है।पति ही धन,मित्र,देवता,गुरु,बंधु और पूज्य है।संसार में वही सार है,लेकिन उसका सर्वस्व उससे बहुत दूर सन्यासी की भांति रहता है।उसकी पीड़ा दमयंती और सीता ही अनुभव कर सकती हैं,अन्य किसी के वश में नहीं है,क्योंकि उन्होंने भी पति-वियोग की पीड़ा सही है-

को जाने रत्नावली

            पिय वियोग दुख बात।

पिय बिछुरन दुःख जानती,

             सीय दमैन्ती मात।।

रत्नावली के दोहों में काव्य-कौशल का परिचय भी मिलता है।अपने पति का नाम वह कितने चातुर्य से प्रकट कर रही है-

जासु दलहि लहि हरषि,

            हरि हरत भगत-भव रोग।

तातु दास-पद-दासि ह्वे,

              रतन लहत कत सोग।।

(अर्थात जिसके पत्ते को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करके भगवान जन्म-मरण रूपी रोगों को दूर कर देते हैं,उस (तुलसी) के दास (तुलसीदास) के चरणों की दासी होकर तू क्यों शोक करती है?)

श्री राम उसके पति के और पति उसके ह्रदय में निवास करते हैं,इस तरह उसे दोनों का सान्निध्य प्राप्त है।कितनी सुन्दर कल्पना है-

राम जासु हिरदै बसत,

             सो पिय मम उरधाम।

एक बसत दोउ बसे,

            रतन भाग अभिराम।।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी’ कहा है तो वही उनकी पत्नी रत्नावली ने यही बात इस तरह से कही है-

दुष्ट नारि तिमि मीत सठ,

                  उत्तर देनो दास।

रत्नावलि अहिवास घर,

               अन्तकाल जनु पास।।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि रत्नावली का मात्र गोस्वामी तुलसीदास जी की धर्मपत्नी के रूप में ही नहीं बल्कि एक त्यागमयी देवी,विदुषी एवं कवयित्री के रूप में मूल्यांकन होना चाहिए।हिंदी-साहित्य में उनके योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

6 thoughts on “तुलसीदास कुछ नहीं,केवल रत्ना के शब्दों का चमत्कार

  1. अच्छा सामानांतर विश्लेषण. तुलसीदास की मानस में खो गए रत्नावली के साहित्य पर और चर्चा होनी चाहिए.

    1. वास्तव में ऐसे रचनाकारों के बारे में लिखने का मेरा मुख्य उद्देश्य ही यह है कि इनपर और चर्चा हो और इनके कृतित्व पर शोध-कार्य होने चाहिए।

  2. बहुत सुंदर वर्णन…… चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।।’ रत्नावली का ऐसा वचन सुनकर तुलसीदास जी का अंतर्मन जग उठा ,और तुलसीदास जी के नये अवतार ने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की. भारत ही नहीं सारी दुनिया उनकी रचनाओं का लोहा मानती है.

  3. निशब्द हूँ रत्नावली के दर्द के आगे। ज्ञान वर्धक पोस्ट।

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