वसंत के आगमन के साथ ही मौसम में एक विचित्र-सा परिवर्तन आने लगता है।देह को सहलाती हुई हवा में मन धीरे-धीरे मचलने लगता है।आम के वृक्षों में मंजरियाँ फूटने लगती हैं।यह एक ऐसा मौसम है जिसमें रंग-बिरंगे फूल जगह-जगह खिले हुए दिखते हैं और उन्हें देख कर मन मोहित हुआ रहता है।नदियों,सरोवरों और झरनों में शुद्ध हवा शीतलता प्रदान करती है।कहना गलत न होगा कि वसंत ऋतु में हर ओर मस्ती-सी छा जाती है।पौराणिक काल में वसंत पंचमी को ‘मदनोत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा रही है।ब्रज क्षेत्र में आज ही के दिन से होलिकोत्सव का आरम्भ माना जाता है।वृन्दावन में इस दिन शाह जी के मंदिर का बसंती कमरा खोला जाता है तथा भगवान का श्रृंगार वसंती वस्त्रों से किया जाता है।इसी दिन से लोग होली जलने के स्थान पर दण्ड रोप कर उत्सव की शुरुआत करते हैं।ग्रामीण क्षेत्रों में स्थान-स्थान पर फाग तथा अन्य गीतों की मधुर ध्वनियाँ सुनाई देने लगती हैं।
माना जाता है कि वसंत पंचमी को वाणी की देवी सरस्वती का जन्म हुआ था।इसीलिए इस दिन विद्या की देवी की आराधना करने का विधान है।माता सरस्वती की उपासना करने से जीवन में विवेक की प्राप्ति होती है।अनेक पुराणों में माँ सरस्वती की महिमा का गायन किया गया है।मान्यता है कि वाणी की वंदना करने से व्यक्ति को सुख,समृद्धि की प्राप्ति होती है।यह एक ऐसा दिन है जब अनेक शुभ कामों का आरम्भ किया जाता है।हिन्दू धर्म में जिन संस्कारों का उल्लेख है उनमें विद्यारम्भ और उपनयन संस्कार इसी दिन करने का विधान किया गया है।अनेक साहित्यसेवी अपनी रचनाओं का आरम्भ इसी दिन से करते हैं।मान्यता है कि इस दिन लेखन से जुड़ा कोई भी कार्य सम्पूर्णता को प्राप्त होता है तथा उसे प्रसिद्धि प्राप्त होती है।इस दिन मांगलिक कार्य करना भी अच्छा माना जाता है।लोक मान्यता है कि वसंत पंचमी के दिन विवाह करने से दाम्पत्य जीवन सुखी रहता है।
हिंदी साहित्य के लोगों के लिए वसंत पंचमी का एक और महत्व है और वह यह है कि माँ भारती के वरद पुत्र महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का जन्म इसी तिथि को हुआ था।हिंदी साहित्य के लिए निराला जी का योगदान अप्रतिम है।छंदों की कारा से कविता को निराला जी ने ही मुक्त कराया था।‘राम की शक्ति पूजा’,’तुलसीदास’,’सरोज स्मृति’,’कुकुरमुत्ता’ आदि अनेक सशक्त रचनाओं के सर्जक निराला ने हिंदी साहित्य को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए अथक प्रयास किये थे।ऐसे सच्चे पुत्र को पाकर माँ सरस्वती मानो धन्य हो गईं।निराला जी ने स्वयं को “मैं हूँ वसंत का अग्रदूत” कहा था।वही निराला जी ने ‘वह तोड़ती पत्थर’ में समाज का नग्न यथार्थ प्रस्तुत किया है।आपकी सरस्वती वंदना तो कालजयी बन चुकी है।आज भी प्रायः समारोहों में सरस्वती वंदना के रूप में इसे गाया जाता है।’वर दे वीणा वादिनि वर दे’ की अनुगूंज तो सर्वत्र ही ध्वनित होती है-
वीणा वादिनि वर दे
वर दे,वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्ररव,अमृतमन्त्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे।
नव गति,नव लय,ताल-छंद नव,नवल कंठ नव जलद मंद्र रव
नव युग के नव विहग वृन्द को नव पर नव स्वर दे।
वर दे,वीणावादिनि वर दे।
-निराला
आज की तो सदी ही ज्ञान की सदी है।विद्याध्ययन और ज्ञानार्जन तो आज की अनिवार्यता ही है।हमारी सनातन परम्परा में ज्ञान-विवेक-संस्कार तथा मेधा शक्ति का महत्व तो सर्वोपरि ही रहता आया है।प्रातःकाल हाथों का दर्शन इस शुभ उच्चारण से ही किया जाता है-
कराग्रे बसते लक्ष्मी कर मध्ये सरस्वती।
कर मूले तु गोविन्द प्रभाते करदर्शनम।
वसंत पंचमी से शीत ऋतु की विदाई तथा विमल वसंत की मनोहारी ऋतु के आगमन का द्वार खुल जाता है परन्तु एक बात जो आज के दिन चुभन देती है वह यह कि सरस्वती पूजा की परम्परा का महत्व काफी पुराना होते हुए भी आज हम इसके महत्व को या तो भूलते जा रहे हैं या मात्र दिखावे या फैशन के तौर पर इस त्यौहार को मनाने लगे हैं।किसी ज़माने में प्रायः सभी घरों में माता सरस्वती की पूजा की जाती थी।आज के दिन लोग अपने व्यावसायिक संस्थानों में माता सरस्वती की पूजा सरसों के नए फूलों,आम की मंजरी,श्वेत पुष्पों आदि से करते थे।विद्यालयों में भी वाणी पूजा की परम्परा थी और इसे धूमधाम से मनाया जाता था।आज यह परम्परा लुप्त होती जा रही है।आज हमारे पास इतना समय ही नहीं है कि वसंत के मौके पर खिले सरसों के पीले फूल देखें,आम की बौर को देखकर हर्षित हों या इस त्यौहार को मनाकर उल्लसित हों।काश हम इतना समय निकाल पाते।हाँ आज इस त्यौहार को मनाते ऐसे लोग ज़रूर दिख जाएँगे जो पीले वस्त्रों से स्वयं को सजाकर पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं खासकर मैं महिलाओं को देखती हूँ कि बेचारी कहीं से भी खोजकर या खरीदकर पीले वस्त्र धारण करती हैं और सज-संवर कर घर से निकल पड़ती हैं।ऐसी महिलाओं और खासकर माताओं से मैं जानना चाहूंगी कि वे अपने बच्चों को कितना ज्ञान दे पाती हैं या कभी भी उन्होंने अपने बच्चे को इस उत्सव का वास्तविक अर्थ बताया है या कभी यह ज्ञान दिया कि इस त्यौहार का मतलब ही यह है कि ज्ञान अर्जित किया जाए और विद्याध्ययन ही इस त्यौहार का वास्तविक उद्देश्य है।
वर दे,वीणावादिनि वर दे
Aap ek sraahniya kaam kar rahi hain . Itne achche logon ki baat hum tk pahunch rhi hai. Devi Saraswati hum mein se har ek mein nirala ji ko Amar rakkhein .
बहुत सुंदर बात लिखी श्रद्धा आपने।
सरस्वती पुत्र निराला जी का कुछ अंश भी अगर हमारे अंदर आ जाए तो एक काव्यात्मक महौल ही बन जाए।