भगवान श्री कृष्ण की श्रीमद्भागवद्गीता में यह उद्घोषणा है कि जब-जब भी धर्म की हानि होती है,मैं साधुओं की रक्षा,दुष्टों के विनाश एवं धर्म की स्थापना के लिए युग-युग में अवतार लेता हूँ।चैतन्य महाप्रभु इस धरा पर जब मध्य युग में अवतरित हुए,इतिहास का वह काल ‘अंधकारमय काल’ कहा जाता है।राजनैतिक परतंत्रता,धार्मिक व सांस्कृतिक परम्पराओं में अस्त-व्यस्तता और सामाजिक विखंडन ने हमारे देश को पतन के गर्त में डाल दिया था,चारों ओर निराशा का वातावरण था।वास्तविक धर्म को भूलकर लोग पाखंड में डूबे हुए थे।वाह्य को ही वे श्रेष्ठ मान रहे थे,अंतर को भूल गये थे।महाप्रभु के समय जैसा वातावरण था लगभग वैसा ही आज दिखाई दे रहा है।यद्यपि आज मानव ने बहुत प्रगति कर ली लेकिन उसकी समस्याएँ ज्यों की त्यों हैं,बल्कि सोचकर दिल में चुभन ही होती है कि समस्याएँ बढ़ती ही जा रही हैं।आज मनुष्य ने यह प्रगति तो कर ली कि वह चन्द्रमा तक पहुँच गया,परन्तु वास्तव में हुआ यह है कि अन्तरिक्ष तो हमारे नजदीक आ गया लेकिन हमारे ही पड़ोसी और समाज के लोग हमसे दूर हो गये।कहने में भी दिल में एक टीस सी उठती है कि आज के समय में अपने बुजुर्ग माँ-बाप ही लोगों को बोझ लगते हैं।ज्ञान बाँटने को कह दो तो ऐसे लोग पूरी दुनिया को जीने का सलीका सिखा सकते हैं लेकिन जब अपने ऊपर आती है तो इन्हें सिर्फ अपनी जिंदगी और अपना स्वार्थ ही दिखता है और माता-पिता का कष्ट इन्हें बेकार का बोझ लगता है।डॉ.राधाकृष्णन जी ने अमेरिका में भाषण देते हुए इसी वस्तुस्थिति पर कितना सटीक प्रकाश डाला था-
“हम पक्षियों की तरह उड़ना सीख गये,हम मछलियों की तरह समुद्र की तह में जाना सीख गये लेकिन मनुष्य की तरह पृथ्वी पर रहना हमने नहीं सीखा।”
आज की इन विषम स्थितियों का कारण यह है कि मनुष्य मूलतः कई बातें भूल गया है।जैसे वह यह भूल गया है कि वह सिर्फ मनुष्य है और कितना भी प्रयत्न क्यों न कर ले वह स्वयं सर्वशक्तिमान नहीं बन सकता।सर्वशक्तिमान कोई और है,जिसके साथ उसे सम्बन्ध जोड़ना है।यदि हमें पूर्णता प्राप्त करनी है तो पूर्ण के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करना होगा अन्यथा हम अपूर्ण ही रहेंगे और इसी अपूर्णता में आज हम सभी जी रहे हैं तभी हम में से अधिकांश लोग सब कुछ होते हुए भी ज़रा-ज़रा सी कमी पर दुखी,असंतुष्ट और क्रोध में रहते हैं।चैतन्य महाप्रभु ने हमें पूर्णता का यह सम्बन्ध बताया-प्रेम के द्वारा।इसी तरह से समाज को भी हम करुणा,सहृदयता व प्रेम के द्वारा ही मजबूत कर सकते हैं।समाज विखंडित होगा तो मन भी विखंडित होगा।आज संसार में जितनी भी हिंसा दिखाई दे रही है,वह हमारे मन की हिंसा,स्वार्थ व कलुष का ही प्रतिबिम्ब है।
चैतन्य महाप्रभु का जन्म बंगाल के नवद्वीप (नदिया) नामक स्थान पर फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन फरवरी सन 1486 को हुआ था।उनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ मिश्र पुरंदर एवं माता का नाम शची देवी था।तत्कालीन प्रथानुसार बालक का स्वभाव जानने के लिए उसके सामने सोना,चांदी,खिलौने,मिठाई एवं ‘श्रीमद्भागवत’ रखी गई।कहते हैं कि इस विलक्षण बालक ने तुरंत भागवत पर हाथ रख दिया।यही भागवत उनके शेष जीवन में लीला सहयोगिनी हुई और उन्होंने विशुद्ध भागवत-धर्म का प्रचार किया।चैतन्य की माता उन्हें अनिष्ट से बचाने के लिए ‘निमाई’ कहती थीं,जिसका अर्थ होता है जो यम को नीम की तरह कड़वा लगे।बालक निमाई की बाल-लीलाएँ बड़ी मनोहारिणी एवं विचित्र थीं।रोते हुए बालक निमाई हरि-कीर्तन सुनकर चुप हो जाते थे।
चैतन्य महाप्रभु ने अंधकार के उस युग में अवतरित होकर हमारी संस्कृति को जीवित रखा और उसमें प्राणों का इतना संचार किया कि वह संस्कृति किसी न किसी रूप में आगे चलती रही।नवद्वीप में जो एक ज्योति अवतरित हुई उसका प्रकाश धीरे-धीरे सारे भारत में फैला।उनके भक्ति-आन्दोलन में जाति-सम्प्रदाय आदि की कोई मर्यादा नहीं थी,मर्यादा केवल एक थी-कि मनुष्य बनो,चरित्रवान बनो।उन्होंने कहा कि जो अनंत शक्तिमान है,उस हरि का स्मरण करो,उसके साथ एकाकार होने का प्रयत्न करो।इसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न सम्प्रदायों,वर्गों व जातियों के लोग सब भेदभाव भूलकर उनके भक्त बन गये।भक्ति की यह धारा जो नवद्वीप से बही उसमें सारा देश निमग्न होकर एक हो गया।इस एक होने का यह परिणाम हुआ कि जो विरोध की तलवारें उस समय तनी हुई थीं और ऐसा लगता था कि हमारा अस्तित्व खतरे में है,वे तलवारें कुंठित हो गईं।महाप्रभु की सबसे बड़ी देन हमारी संस्कृति व समाज को यही है कि उन्होंने हमारे समाज को एक किया,भक्ति के आधार पर।वास्तविकता यह है कि केवल यही एक आधार हो सकता है जिस पर सारा देश एक हो सकता है।महाप्रभु में अद्भुत विशेषताएँ थीं।वे पूर्णता और एकता के साकार रूप थे,राधा और कृष्ण के सम्मिलित अवतार थे।राधा और कृष्ण-अर्थात भगवान की आह्लादिनी शक्ति और शक्तिमान का अद्भुत सामंजस्य थे चैतन्य।उन्होंने पूर्णता का आदर्श स्थापित किया।उनके आदर्श समस्त संसार व मानव-जाति की एकता के लिए महत्वपूर्ण हैं।अगर हमें अशांति से विश्व-शांति की ओर जाना है,मनुष्य को अपूर्णता से पूर्णता की ओर ले जाना है,अगर अंधकार से प्रकाश की ओर,मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना है तो हमारे लिए केवल एक ही मार्ग है प्रेम का,भक्ति का जो चैतन्य महाप्रभु ने हमें बताया।इसका अनुसरण समस्त मानव जाति के लिए श्रेयस्कर,मंगलकारी व सुखद है।
चैतन्य महाप्रभु के बारे में यह तो बहु-प्रचारित व लोकप्रिय तथ्य है कि वे भावुक प्रेमी-भक्त थे किन्तु इस बात से बहुत से लोग परिचित नहीं होंगे कि वे एक ऐसे महान विचारक भी थे जिन्होंने इस प्रकार का अपना शाश्वत चिंतन प्रस्तुत किया जो आज की परिस्थितियों में भी महत्वपूर्ण है।पांच सौ वर्षों से अधिक व्यतीत हो जाने के बाद आज हर क्षेत्र में ज़बरदस्त परिवर्तन हुआ है किन्तु विचारक श्री चैतन्य महाप्रभु ने ‘शिक्षाष्टक’ के रूप में जो मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया वह आज भी उतना ही उपादेय है।महाप्रभु ने स्वयं कोई सिद्धांत-शास्त्रीय रचना न करके सहज रूप में मानव को जो सन्देश दिया वह गीता में भगवन श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गये सन्देश की भांति महान,चिरंतन और उपयोगी है।
आज आतंकवाद,हिंसा,लूटमार,युद्ध एवं हत्याओं का दौर चल रहा है।ऐसे में महाप्रभु के ‘तरोरपि सहिष्णुता’ के अद्भुत प्रयोग अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।महाप्रभु ने हमें अपकारी का भी उपकार करने का उपदेश दिया।उन्होंने वृक्ष का उदाहरण देते हुए बताया कि जिस प्रकार वृक्ष को काटने या उस पर प्रहार करने वाले के प्रति भी वृक्ष बदले की कार्यवाही करना तो दूर वरन उनकी कुशल-कामना करता हुआ उन्हें अपने फल-फूल,पत्ते,टहनी,छाल,छाया-आश्रय आदि देकर उपकार करता है,उसी प्रकार मनुष्य को भी अपना बुरा चाहने वाले और हमलावर के प्रति भी अहित न करके अधिकाधिक भलाई के कार्य करने चाहिए।ऐसा दृष्टिकोण मनुष्य को सहिष्णुता की चरम पराकाष्ठा पर पहुंचा देता है जिसमें दुष्ट से दुष्ट व्यक्तियों के ह्रदय भी पिघल सकते हैं और उनके ह्रदय से हिंसा की भावना विगलित हो सकती है।महाप्रभु का यह चिंतन कितना गहन है और कितनी समस्याओं का निदान करने में आज भी समर्थ है।हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में तो एक वहशीपन और पागलपन का दौर चलता है जिसमें सिवा बुरे से बुरा करने के अतिरिक्त कुछ अन्य सूझता नहीं।किन्तु ‘तरोरपि सहिष्णुता’ में हमलावर अथवा शत्रु के विवेक एवं चिंतन को उस धरातल पर लाने की क्षमता है,जिसमें उल्टा उसे अपने किये पर पछतावा एवं ग्लानि उत्पन्न हो सके।चैतन्य महाप्रभु ने मन,वचन और कर्म-तीनों से अहिंसा का पालन किया।उन्होंने प्रेम से परिपूर्ण विचारों व भावनाओं,मधुर वचनों और शांतिमय कार्यों से अहिंसा के मार्ग को प्रकाशित किया।आधुनिक युग में इस मार्ग पर चलकर ही हम विश्व-शांति और परस्पर भाई-चारे व सौहार्द को कायम कर सकते हैं और विश्व की महाशक्तियों को इस मार्ग पर ले जा सकते हैं कि वे एटमी हथियारों से सम्पूर्ण मानव-जाति का विनाश करने वाले भारी जखीरे को नष्ट कर परस्पर विश्वास एवं निःशस्त्रीकरण की दिशा में ठोस कदम उठाएं जिससे मानवता को उत्पन्न खतरा दूर हो सके।महाप्रभु का यही सन्देश युगों-युगों तक हम सबका मार्ग प्रशस्त करता रहेगा।
मुझे चुभन होती है कुछ बातों से जैसे असहिष्णुता की बात कह कर हमारे कला जगत के लोग ही जो स्वयं को कला का पुजारी समझते हैं,ऐसी बातें करते हैं कि हम जैसे आम लोग भी शर्म से सर झुका लें।कभी ‘राम’ के नाम को लेकर विवाद,कभी ‘वन्दे मातरम्’ के गान को लेकर तो कभी ‘अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक’ के सवालों को लेकर परन्तु हमें थोड़ी-सी शर्म करनी चाहिए कि हमें उस धरती पर जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जो कबीर,नानक,चैतन्य महाप्रभु,बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय,रविन्द्रनाथ ठाकुर,स्वामी रामकृष्ण परमहंस,स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाँधी जैसे न जाने कितने महानुभावों की कर्म-स्थली रही है और इन सबने सहिष्णुता का ही सन्देश दिया लेकिन हम बातें चाहे जितनी बड़ी-बड़ी कर लें और दूसरों पर दोष डाल दें लेकिन वास्तविकता यही है कि सहिष्णुता की सही परिभाषा ही हम भूल गये हैं।वैसे तो आज पूरे देश में ही ऐसा माहौल बनाया जा रहा है लेकिन बंगाल में असहिष्णुता के नाम पर बहुत कुछ गलत हो रहा है लेकिन क्या आपने एक चीज़ गौर की कि अभी मैंने जितने भी महापुरुषों के नाम गिनाये उनमें ज़्यादातर बंगाल की ही पावन भूमि से थे।राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद बंगाल की विरासत कही जा सकती है।उसी प्रकार वहां का साहित्य-संघर्ष,देशप्रेम और क्रांति का संगम है।श्री बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘आनंदमठ’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास में राष्ट्रवाद का भव्य चित्र प्रस्तुत किया।धर्म और राष्ट्रीयता का ऐसा सुन्दर समन्वय और किसी जगह देखने को नहीं मिलता।भारत का राष्ट्रीय गीत ‘वंदेमातरम्’ उनकी ही रचना है।स्वामी विवेकानंद और श्री अरविन्द के आध्यात्म की छाप को कोई भी भुला नहीं सकता।गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर के योगदान को कोई भी विस्मृत नहीं कर सकता।वे विश्व के एकमात्र ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनी हैं।हमारे देश का राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक’ और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बांग्ला’ उनकी ही रचनाएँ हैं।गुरुदेव की रचनाओं में स्वतंत्रता आन्दोलन और उस समय के समाज की झलक देखी जा सकती है।अंत में मैं गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा कहे गये शब्द जो उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के लिए कहे थे,के साथ आज का लेख समाप्त नहीं कहूँगी क्योंकि यह एक ऐसा विषय या मुद्दा है जो अत्यधिक चिंतन और मनन मांगता है और जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता वरन उसे एक नई दिशा देकर समाज में छाये हुए कुहासे को एक किरण दिखाने की ज़रूरत है –
“श्री चैतन्य हम लोगों के बीच जन्मे,वे बीघा या एकड़ भूमि में नहीं बंधे।उन्होंने समस्त मानवों को अपनाया,उन्होंने अपने विशाल एवं उदार ह्रदय में मानव-प्रेम जागृत किया,जिससे उन्होंने नीरस बंग-भूमि को ज्योतिर्मयी बना दिया।उस समय दीवार तोड़कर पृथ्वी के बीच आने के लिए किसने आह्वान किया?इस आह्वान में सारे लोग कैसे झुक गये?एक बंगाली महापुरुष ने बंगला देश को रास्ते पर ला दिया-वह कौन थे?वह थे-चैतन्य महाप्रभु।”
Superb.
New subject, nice treatment with contemporary touch.
अतिसुन्दर
बहुत ही सामयिक लेख।अध्यात्म की मनुष्य मात्र,परिवार,समाज,राष्ट्र एवं विश्व के लिए कितनी आवश्यकता है इसे आपका लेख स्पष्ट करता है।आज भी ऐसे ही भक्ति आन्दोलन की आवश्यकता है जो मनुष्य मात्र को अपूर्णता से पूर्णता की ओर ले जाये।पुनः उन पुण्य आत्माओं का धरा पर प्रकटीकरण हो जिससे विश्व शांति स्थापित हो।लेख में नवीनता प्रशंसनीय है।
Thought provoking .