हरिवंशराय बच्चन जी का जन्म आज ही के दिन यानि 27 नवंबर 1907 को प्रयाग (इलाहाबाद) के पास प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव बाबूपट्टी में हुआ था।
बच्चन जी को हिंदी साहित्य के छायावाद व प्रगतिवाद के संधिकाल का कवि माना जाता है।इस कालावधि के काव्य-साहित्य की अनेक प्रवृत्तियां हैं।इस धारा के कवियों तथा छायावादी कवियों में दृष्टि और विषय की बड़ी समानता है।इस काल मे व्यक्तिवादी गीतिकविता के क्षेत्र में हरिवंशराय बच्चन जी का नाम सबसे ऊपर आता है।इस धारा की समस्त संभावनाएं और सीमाएं उनमें पुंजीभूत हैं।वे मूलतः आत्मानुभूति के कवि थे,इसलिए उनकी जिन कृतियों में आत्मानुभूति की सघनता है, वे अपने प्रभाव में तीव्र और मर्मस्पर्शी हैं।
जगत के बारे में बच्चन जी का दर्शन कबीर से मेल खाता है, इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है तो वही जीवन दर्शन छायावाद की प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा जी से।महादेवी जी की पंक्तियां-
“मैं नीर भरी दुख की बदली………
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली।”
बच्चन जी की इन पंक्तियों में अर्थ पाती दिखीं-
“मिट्टी का तन मस्ती का मन
क्षण भर जीवन, मेरा परिचय।”
बच्चन जी का नाम सुनते ही याद आ जाती है ‘मधुशाला’ और उसकी मादक करती कविताएं पर अपनी इस अमर कृति के अलावा भी उनकी कई ऐसी रचनाएं हैं जो कालजयी हैं।
उन्होंने अपनी आत्मकथा चार खंडों में लिखी।
“क्या भूलूँ क्या याद करूँ”,
“नीड़ का निर्माण फिर”,
“बसेरे से दूर” और
“दशद्वार से सोपान तक”
डॉ. धर्मवीर भारती ने बच्चन जी की आत्मकथा (क्या भूलूँ क्या याद करूँ) को हिंदी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में पहली ऐसी घटना बताया जब अपने बारे में सब कुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कह दिया।कुछ प्रसिद्ध पंक्तियां-
“क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं!
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को
किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आंसू लाती,
दुख की,दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं,!
बच्चन जी की पहली पत्नी श्यामा देवी की 1936 में मृत्यु हो गयी।उनकी बीमारी के कठिन समय का और इस बीच उनके मन मे चल रही उधेड़बुन की झलक उनकी आत्मकथा के प्रथम खंड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ में मिलती है।
उनका सृजन दूसरी दुनिया में ही ले जाता है और पाठक उनकी रचनाओं से कनेक्ट होता है क्योंकि बच्चन जी स्वयं डूबकर रचना करने वाले कवि थे,जिसने जो भोगा, वह लिखा।
‘बच्चन रचनावली’ भाग 1 के ‘एकांत संगीत’ के छठें संस्करण की भूमिका में उन्होंने स्वयं लिखा है कि
“निशा निमंत्रण के गीतों को लिखते समय मैंने एक साथी की कल्पना की थी।कई गीत उसको संबोधित करते हुए लिखे गए थे,जैसे- ‘,साथी,सो न कर कुछ बात,’ आदि।’निशा निमंत्रण’के अंत में मैंने उस साथी से विदा ले ली थी,’जाओ कल्पित साथी मन के!’
शायद मेरे मन में यह आया होगा कि जो अंधकार मेरे सामने आया है उसे एकदम एकाकी होकर देखूं-छाया रूप साथी से भी विरक्त-विलग होकर,
“तलाशे-यार में क्यों ढूंढिए किसी का साथ,
अपना साया भी हमें नागवार राह में है।”
मुझे ऐसा लगता है कि बच्चन जी की रचनाओं को बहुत ही सीधे-सपाट तरीके से पढ़ा गया,जबकि उनकी प्रत्येक रचना में जीवन दर्शन है, उनकी दृष्टि पूरी तरह से दार्शनिक थी।
ऐसा तो हो नहीं सकता कि हरिवंशराय बच्चन जी की बात हो और उनकी कालजयी रचना ‘मधुशाला’ का ज़िक्र न किया जाए। ‘बच्चन रचनावली-1’ के ‘मधुशाला’ के परिशिष्ट में उन्होंने स्वयं लिखा है-
” ‘मधुशाला’ की लोकप्रियता मेरे लिए भी एक समस्या है।मैं उसे हज़ारों की सभा में सैकड़ों बार सुना चुका हूं, पर आज भी जब कहीं कविता सुनाने खड़ा होता हूँ तो एक स्वर से जनता ‘मधुशाला’ की मांग करती है।मेरी पुस्तकों में वह ‘मधुशाला’ ही सबसे अधिक पढ़ती भी है।एक बात सूझी,ऐसा प्रसिद्ध है कि शराब जैसे-जैसे पुरानी होती है वैसे -वैसे उसका नशा ज़्यादा होता जाता है।एक रुबाई लिखी:
“बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक-झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही,
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।”
अंत में एक रुबाई और! जिस समय मैंने ‘मधुशाला’ लिखी थी उस समय मेरे जीवन और काव्य के संसार में पुत्र एवं संतान का कोई भावना-केंद्र नहीं था।अपनी तृष्णा की सीमा बताते हुए मृत्यु के पार गया,पर,
‘श्राद्ध’ तक ही :
‘प्राणप्रिये, यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना!’,
जब स्मृति के आधार और आगे भी दिखलाई पड़े तो तृष्णा ने वहां तक भी अपना हाथ फैलाया-
‘पितृपक्ष में,पुत्र,उठाना अर्घ्य न कर में,पर प्याला,
बैठ कहीं पर जाना गंगा-सागर में भरकर हाला,
किसी जगह की मिट्टी भीगे,तृप्ति मुझे मिल जाएगी,
तर्पण अर्पण करना मुझको पढ़-पढ़ करके मधुशाला।’
क्या दृष्टि है कवि की?जो इसमें डूबेगा वही ‘मधुशाला’ की भावाभिव्यक्ति को समझ सकता है।
आजकल एक फैशन बन गया है कि कोई भी पुस्तक छपे तो उसकी भूमिका लिखी जाए।स्वयं रचनाकार अपनी पुस्तक की भूमिका लिखे तो भी कहिए लेकिन दूसरे लोगों से लिखाने की परंपरा सी हो गयी है और इसे ही उस पुस्तक की सफलता का पैमाना माना जाने लगा है जबकि भूमिका किसी भी रचनाकार की रचना को कितनी सफलता दिला पाती है?यह तो रचनाकार ही समझ सकता है।वास्तव में आपकी रचना के शब्द यदि बोल रहे हों,अर्थ भावाभिव्यक्ति कर रहे हों,पाठक के दुख-सुख के साथ रचना का तालमेल हो रहा हो और काव्य-सौंदर्य निखर कर आ रहा हो तो आपकी रचना पाठक के दिल को ज़रूर छुएगी, चाहे आप भूमिका लिखे या न लिखें।ऐसा मुझे भी लगता है।
हरिवंशराय बच्चन जी ने ‘मधुशाला’ के ग्यारहवें संस्करण की भूमिका में इस बात को कितने सुंदर तरीके से व्यक्त किया है-
“मेरे प्रकाशक का आग्रह है कि इस संस्करण के लिए मैं एक भूमिका भी लिख दूँ।मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आयी कि लोग काव्य-कृतियों की भूमिका क्यों लिखते या लिखाते हैं।ऐसी भूमिकाओं से और कोई अर्थ सिद्ध होता भी हो,पर जहां तक कविता का संबंध है, न उनकी कोई आवश्यकता होती है और न उनसे कोई लाभ ही होता है।जब कभी मेरे मन में भूमिका लिखने की बात आई है तब मैंने अपने से इस तरह तर्क किया है।किसी भी बात को सबसे अधिक प्रभावपूर्ण तरीके से कहने की कला का नाम कविता है, जो बात मैं अपनी कविता से नहीं कह पाऊंगा,वह मैं अपनी भूमिका से क्या कहूंगा और अगर कुछ कहता भी हूं तो उसके जानने,न जानने से कविता के आनंद में बढ़ती या कमी नहीं हो सकती।मेरे विचार में कविता को आत्मभरित (Self Sufficient) होना चाहिए।
दूसरों से भूमिका लिखाने की बात और बेमानी है।इसका अर्थ है एक पाठक की सम्मति से और पाठकों की सम्मति को प्रभावित करना और यह प्रायः खुलकर नहीं की जाती।”
कविता की कितनी सुंदर परिभाषा बच्चन जी ने कर दी है।वास्तव में कविता को self sufficient यानि आत्मनिर्भर होना चाहिए।कभी कभी पूरा ग्रंथ भी वह बात नहीं कह पाता जो दो पंक्तियों की कविता कह देती है।हमारा हिंदी साहित्य ऐसी रचनाओं से भरा पड़ा है जो
‘देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर’
इन पंक्तियों को सत्य साबित करती हैं लेकिन दिल से निकली बात ही दिल तक शायद जा पाती है।बस दिल से ही बात नहीं निकल पाती तो कुछ अधूरापन से रहता है।
हरिवंशराय बच्चन जी जैसे रचनाकार को जितना पढ़ो उतने ही नए आयाम हासिल होते हैं लेकिन आज बस यही तक।इस अमर रचनाकार के जन्मदिवस पर पुनः उनको सादर नमन।
अति उत्तम लेख
बहुत सुंदर