कल 14 फरवरी का मनहूस दिन शायद ही किसी हिन्दुस्तानी को कभी भी भूलना चहिये।जब जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में फिदायीन हमला हुआ।ढाई हज़ार से भी ज़्यादा हमारे जवानों का कारवां था जिस पर हमला हुआ और पाक संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने इसकी ज़िम्मेदारी ली।कल शाम तक टी.वी.पर समाचार सुनते हुए इतना अंदाज़ नही लग रहा था कि हमारे चालीस से भी ज़्यादा CRPF के जवान इस घटना में शहीद हो जाएँगे और जैसे-जैसे वीर सैनिकों के शहादत की संख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे दिल में दर्द और चुभन भी अपनी पराकाष्ठा लांघती गई।मुझे पता है कि बिलकुल मेरे जैसी ही अवस्था आज हर भारत वासी की होगी और होनी भी चाहिए और यदि किसी की नही है तो जैसा कि राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी ने कहा है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नही नर पशु निरा और मृतक समान है।।
वास्तव में ऐसे नर पशुओं को तो मै अब मरा हुआ ही समझती हूँ क्योंकि ऐसे गद्दार तो उन विदेशी शत्रुओं से भी ज़्यादा गिरे हुए हैं जो हमारे ऊपर वार करते हैं।इन गद्दारों को सारी सुरक्षा इस देश से चाहिए,ऐश आराम यहाँ पर लूटते हैं लेकिन साथ उनका देते हैं जिनकी आंख हमारे देश के टुकड़े करने पर लगी है इसलिए अब वक़्त आ गया है कि ऐसे लोगों को जो इन टुकड़े करने वाले लोगों का साथ देते हैं और रहते इसी देश का नागरिक बन कर हैं और बात उधर की करते हैं,पहले कुचला जाए।
पता नही आज दिल इतना भारी है कि कुछ लिखने का भी मन नही कर रहा।सुबह से न जाने कितनी बार आज मेरे साथ ऐसा हुआ कि अचानक सब कुछ धुंधला सा दिखने लगा और जब आँखों पर हाथ फेरा तो आंखें आंसुओं से भरी हुई थीं।मैं तो ईश्वर से यह प्रार्थना करती हूँ कि इस एक-एक देशवासी के आंसुओं का अब हिसाब हो और हमारे एक-एक वीर जवान की शहादत का बदला यह हो कि देश में अमन और चैन का वातावरण कायम हो।पता नही आज न किसी को कुछ कहने का मन हो रहा है,न किसी पर कोई इल्ज़ाम लगाने की इच्छा है,न किसी से कोई उम्मीद बस उन वीर सपूतों के अनदेखे चेहरे आँखों के आगे घूम रहे हैं। उन्हीं को आज मेरी श्रद्धांजलि।ईश्वर उनके घरवालों को हिम्मत और साहस दे और हम सभी में इतनी सामर्थ्य दे कि दुःख की इस घड़ी में हम उनके साथ हमेशा खड़े रहें।आज कुछ और नही लिख पा रही।कुछ दिनों पहले देश के इन्ही हालातों पर एक कविता लिखी थी उसे ही आज आपके लिए पोस्ट कर रही हूँ—
हम वसुधैव कुटुम्बकम की संस्कृति के अनुगामी हैं,
सारे विश्व को ही अपना परिवार समझते हैं
सही है-सबको गले लगाएं हम
पर यह कैसे कर जाते हैं ?
जिसने धरती माता के टुकड़े करने की बात भी की
उसी की जयकार बुलाते हैं।
विदेशी गद्दार जो हमारा धन-जन मर्यादा-
सब लूटते हैं,उन्ही को अपना मानते हैं।
संसद भवन जो हमारे लोकतंत्र का मंदिर है
उस पर हमला करने वाले को शहीद का दर्ज़ा देते हैं ,
उसके खून को व्यर्थ न जाने देने की कसमें खाते हैं।
जिन गद्दारों को सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी दी
उन्ही का हत्यारा अपने देश को ही बनाते हैं,
यह कैसी हमारी संवेदनशीलता है ?
क्या यही इस देशवासियों की सहनशीलता की परीक्षा है ?
सर्वधर्म समभाव की संस्कृति को अपनाएं
पर स्वयं को देशभक्त और देशद्रोही का फर्क तो समझाएं।
शिक्षा के मंदिर आज अखाड़े लगते हैं
राजनीति भी सिर्फ़ विरोध की राजनीति होती जाती है
हम सिर्फ अपने अपने धर्म-जाति का सोचते हैं
कितनी कुंठित और संकुचित मानसिकता में जीते हैं।
हमारे तो धर्म का अर्थ ही धारण करना है
यह एक ऐसा आधार है जिस पर-
नैतिकता,सत्य,त्याग,बुद्धि,विवेक,निष्ठा,सेवा
जैसे गुण पोषित और विकसित होते हैं
परन्तु आज इसका मूल अर्थ जैसे खो सा गया है
आज हम सिर्फ अपने लिए जीते हैं और अपने लिए ही मरते हैं।
तभी तो कुछ लोगों के छलावे में हर पल छले जाते हैं
परन्तु अपनी ही धरती माता के आंसू हमें नही दिखते हैं।
अब बस एक ही सपना है कि कोई न कोई भोर तो ऐसी आएगी
जब सारा तमस और कुहासा एक रौशनी की किरण से जगमगाएगा
पर वह दिन कब आएगा,कब आएगा,कब आएगा ?