Blog कश्मीर के रंग

जड़ से उखड़ने का दुःख

“चुभन पॉडकास्ट”

आज देश के जो भी हालात हैं और जम्मू-कश्मीर में जो भी कुछ हो रहा है उसके बारे में मैं नही सोचती कि किसी को भी कुछ बताने की ज़रूरत है।सच कहा जाए तो हर देशवासी का आज ह्रदय रो रहा है लेकिन आज के हालातों में मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी कि यह जो कुछ भी है इसमें हमारी अपनी ही गलतियां हैं।कश्मीर क्या था और क्या बन गया है यह तो किसी से भी छुपा नही है।कश्मीर में 1990 में हथियार बंद आन्दोलन शुरू होने के बाद से अब तक लाखों कश्मीरी पंडित अपना घर-बार छोड़ कर अलग-अलग जगहों पर चले गये।उस समय हुए नरसंहार में सैकड़ों पंडितों का कत्लेआम हुआ था और बहुत सी हमारी बहनों के बलात्कार हुए थे।पाकिस्तान की सेना और आईएसआई ने मिलकर कश्मीर में दंगे कराए और यह सिलसिला आज तक जारी है।इन लोगों ने पहला कार्य तो यह किया कि मस्जिदों की संख्या बढ़ाई,दूसरा कश्मीर से गैर मुस्लिमों और शियाओं को भगाया और तीसरा कार्य यह किया कि बगावत के लिए तैयार किया।अब चौथा कार्य यह किया जा रहा है कि सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं और सरेआम भारत की खिलाफत की जाती है,क्योंकि कश्मीर घाटी में अब गैरमुस्लिम बचे ही नही हैं।कश्मीर में आतंकवाद के चलते लगभग सात लाख से अधिक कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए।इस दौरान हजारों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया।हालाँकि अभी भी कश्मीर घाटी में 2 या 3 हज़ार कश्मीरी पंडित रहते हैं लेकिन अब वे किन हालातों में होंगे यह तो महसूस किया ही जा सकता है।

कश्मीरी पंडितों का दर्द तो सिर्फ वे लोग खुद ही समझ सकते हैं क्योंकि बाकी दुनिया तो जैसे भुला ही बैठी है।जो महसूस करे वही समझ सकता है वर्ना भाषण देकर राष्ट्रीय एकता की बातें करना बहुत आसान है।वहां से उजड़े लोगों का दर्द जब मैं देखती हूँ तो मेरे और मेरे परिवार के ज़ख्म हरे हो जाते हैं।मेरे परिवार ने विभाजन(1947भारत-पाक)का दंश झेला है।मेरे दादा-दादी अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर 1947 में सियालकोट जो अब पाकिस्तान में है,और वहां हमारा पुश्तैनी घर था से,सब कुछ त्याग कर भारत आए थे।उस समय विभाजन का दर्द उन्होंने कैसे झेला था यह मैं आज भी अपने पिता और बुआ की आँखों में देख पाती हूँ जो कि उस समय छोटे बच्चे थे और अपनी जड़ों से उखाड़ कर मीलों दूर बस जाने को मजबूर हुए परन्तु वह एक बहुत बड़ी दुर्घटना थी।एक देश के दो टुकड़े हो रहे थे,इसलिए गलत ही सही ऐसा माहौल बना और हमें सहना पड़ा परन्तु आज ज़रूरत यह सोचने की है कि अपने देशवासी ही क्यों एक दूसरे को जड़ से उखाड़ने में लगे हैं।कश्मीरी पंडित अपने देश में ही शरणार्थी का जीवन व्यतीत करने को क्यों मजबूर हैं?

यह सिर्फ मैं ही नही कह रही बल्कि एक-एक कश्मीरी पंडित जो इतने वर्षों तक बेघर होता रहा कह रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि उनका दर्द तो किसी ने महसूस ही नही किया क्योंकि किया होता तो आज वहां की ये हालत न होती।न तो मैं कोई राजनीतिक विषयों की विशेषज्ञ हूँ,न कोई राजनीतिक व्यक्ति ही हूँ बल्कि एक आम इन्सान के तौर पर मेरा यह सोचना है कि जब 1990 से ही यह सब शुरू हुआ और कश्मीर के पंडितों पर अत्याचारों की अति हो गई तो उसी समय राजनीतिक स्तर पर भी और हमारी इन तथाकथित सिविल सोसाइटी ने भी क्यों नही उनके साथ आकर उन्हें बेघर होने से रोका?उन हालातों में लोग इस तरह अपने घरों से भागे थे कि सामान बिखरे पड़े थे,गैस स्टोव पर देगचियाँ और बर्तन इधर-उधर बिखरे हुए थे।लोग अपने पुश्तैनी घरों के दरवाजे खुले छोड़ कर ही भागने को मजबूर हुए थे।उस समय के चश्मदीद लोगों के संस्मरण सुन कर पता चलता है कि वे लोग हिंसा,आतंकी हमले और हत्याओं के माहौल में जी रहे थे।उनकी बहन-बेटियों के लिए बुरी-बुरी बातें की जाती थीं।मैं समझ सकती हूँ कि इन बातों को ताउम्र अपने ज़हन से निकालना नामुमकिन होता है क्योंकि मैंने भी अपने पिता और उनके बड़े भाई यानि अपने ताऊजी से इतने वर्ष बीत जाने क बाद भी इन बातों को ऐसे सुना है जैसे वह कल ही घटित हुई हों।मेरे दादाजी भी 1947 में ऐसे दंगों के बीच ही अपनी जवान पत्नी और बहनों को लेकर कैसे बचते हुए आए होंगे यह मैं महसूस कर सकती हूँ।मेरे दादा तो बेचारे बहुत वर्ष जी भी नही सके और हमलोगों को उनकी तो याद भी नही लेकिन मेरी दादी जिनका 1998 में स्वर्गवास हुआ वे अपने अंतिम समय तक भी इन बातों को नही भूलीं थीं और ऐसे अपने स्यालकोट के घर की कहानियां हमें सुनाती थीं जैसे आज भी वही उनका घर हो।वास्तव में मैं अपने इन कश्मीरी पंडितों के दर्द को दिल से महसूस कर सकती हूँ क्योंकि सच में देखा जाए तो इन बातों में इतना दर्द है कि लगता है कि जैसे हम कोई कहानी सुन या लिख रहे हों लेकिन दोस्तों यह कहानी नही हम जैसे बहुत से लोगों का भोगा हुआ दर्द है जो प्रार्थना करता है कि ऐसे हालात ख़त्म किये जाएँ।जड़ों से उखाड़ा जाना कितना दुखदाई है यह सिर्फ महसूस किया जा सकता है।इसका मैं एक और छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगी।मेरे पिता जो विभाजन के समय में छोटे बच्चे थे लेकिन उनके दिल में

अभी भी वह सारी बातें ऐसे अंकित हैं जैसे कुछ दिन पहले ही घटित हुई हों।जब वे लोग स्यालकोट में रहते थे तो साल में 2-3 बार कश्मीर घूमने आते थे।अनंतनाग जो पंडित बाहुल्य क्षेत्र था वहां के बारे में पता नही क्यों उनकी इतनी यादें जुड़ी हुई हैं कि अभी भी हम जब भी हरिद्वार जाते हैं तो वे यह कहना नही भूलते कि हरिद्वार आकर मुझे बचपन में घूमा अनंतनाग नही भूलता।वंशावलियां देखने की प्रथा जैसे हरिद्वार में है वैसे ही वे कहते है कि अनंतनाग में जब हम जाते थे तो पंडित मोटे-मोटे वंशावलियों के पोथे लेकर बैठे रहते थे और उनके पास जाकर लोग अपने खानदान के सदस्यों के नाम लिखाते थे।इसी तरह उन्हें जब वे छोटे से थे तब एक बार कश्मीर घूमने आने पर 104 डिग्री बुखार हो गया।मेरे पिता की बड़ी बहन यानि अपनी बुआ से मैं कई बार यह किस्सा सुन चुकी हूँ कि गुलमर्ग में शाही चश्मे में उनको मेरे दादा ने नहला दिया तो उस चश्मे का पानी इतना निर्मल और चमत्कारी था कि मेरे पिता का बुखार ही उतर गया।यह सब छोटे-छोटी बातें कोई किस्से कहानियां न होकर दिलों से निकली आवाजें हैं जिन्हें अपनी जड़ों से उखड़ कर रहने को मजबूर होना पड़ा।इन्ही हालातों से कश्मीरी पंडित भी गुजर रहे हैं।अपनी यादों को,अपने घरों की एक एक छोटी से छोटी चीज़ों को,उन गलियों को,उन रास्तों को,वहां जन्म से बिताए पलों को कैसे कोई एक झटके में भुला सकता है?यह सब कुछ तो एक-एक रोम में बस जाता है और सदियों तक याद रहता है।हमने खुद तो कुछ नही झेला था।मेरे पिता भी बच्चे ही थे लेकिन आज हमारी तीसरी पीढ़ी और हमारे आगे वाली पीढ़ी भी इस दर्द को भली प्रकार महसूस करती है या कह सकते हैं कि आज हमारे सीनों पर भी अपनी जड़ों से अलग होने के निशान हैं।

यह त्रासदी किसी एक परिवार की न होकर सामूहिक त्रासदी है।मैंने पढ़ा था कि अधिकांश कश्मीरी पंडितों ने जम्मू में शरण ली।जून की गर्मी में इन खेमों में कई लोगों का देहांत हो गया।उफ़ लिखने में भी हाथ कांप रहे।क्या क्या नही सहा होगा इन लोगों ने।पूरी जिंदगी ठन्डे कश्मीर में बिताने वालों को जम्मू और दिल्ली या अन्य जगहों में गर्मी की मार और न जाने क्या-क्या धक्के नही सहने पड़े होंगे।मैंने पढ़ा था कि एक अनुमान के अनुसार 1990 से लेकर अब तक पिछले 28 वर्षों में तीन लाख से ज़्यादा कश्मीरी पंडित घाटी को छोड़कर चले गये जिनमे से अधिकतर 1990 में ही चले गये थे।उन खेमों में लोग इतने बुरे हालातों में थे कि उन्हें देखकर कुछ बेचारे पंडितों ने यह फैसला लिया कि हम कश्मीर में ही रहेंगे चाहे मौत ही आ जाए या हम घुट-घुट कर जियें।कहने का मतलब कि यह कश्मीरी पंडित भी तो हमारे अपने ही थे लेकिन न प्रशासनिक स्तर पर और न ही सामाजिक स्तर पर इनकी कोई बहुत मदद की गई।

ऐसी बातें सोचकर मन बहुत बोझिल सा हो जाता है और ईश्वर से यही दुआ मांगता है कि ऐसे हालात अब ख़त्म हों,ईश्वर किसी को भी उसकी जड़ों से उखड़ने को मजबूर न करे क्योंकि चाहे झोपड़ी हो या महल अपना घर छोड़ना कितना दुखदाई है इसका एहसास ईश्वर अब किसी को भी न कराए।मैंने कुछ समय पहले अपने दादा-दादी,अपने पिता और उनके भाई-बहनों के बारे में सोचकर एक कविता लिखी थी जो मैं उन लोगों के साथ ही अपने कश्मीरी पंडितों को भी समर्पित करती हूँ-

         जड़ से न उखाड़ो

जब कभी मैं किसी पेड़ या पौधे को

उसकी जड़ से उखड़ते देखती हूँ

तो अपनी दादी की याद में खो जाती हूँ।

हम में से कोई भी किसी पेड़ या पौधे को छेड़ता था

तो वो तड़प कर कह उठती थीं –

“न किसी को उसकी जड़ से न उखाड़ो

जड़ से उखड़ने का दुख क्या होता है तुम क्या समझो?’’

नासमझ बचपन तो कभी इन बातों का मतलब न समझ पाया

पर अब याद आती हैं –

दादी की वो कातर आँखें जैसे कुछ ढूंढ रही हों।

भारत-पाक यह दो देश नहीं बने थे बल्कि कितने दिलों के टुकड़े हुए थे।

मेरे दादा-दादी का गोद में मेरे पिता-

और उनके बाकी के भाई बहनों को बचाकर ला पाना

जैसे उनके जीवन की कोई बड़ी उपलब्धि था।

दादी सुनाया करती थीं मेरे पिता का वो करुण-क्रंदन

जो बच कर आ जाने के कई महीनों बाद भी जारी था –

“ माताजी बचाओ वो आ गए ”कह कर माँ के गले से लिपट जाना

यह एक छोटे से बच्चे का दुःस्वप्न नहीं था

अपितु जागती आँखों से देखा एक भयानक सच था।

उस समय मैं बच्ची थी कुछ समझ न पाई

पर आज जब सब समझती हूँ तो अपने दादा-दादी बुआ-पिता

और ऐसे ही बाकी के सब लोगों का दर्द समझ में आता है।

क्रोध आता है देश के उन ठेकेदारों पर

जो देश चलाने का दम भरते हैं

पर घाव तो सिर्फ़ हमारे सीनों पर लगते हैं

विभाजन का दर्द झेली हुई अब हमारी तीसरी पीढ़ी है-

दादा-दादी तो न रहे पर अभी भी पिता-बुआ की बातों में

एक भयानक दर्द झलकता है

अपने देश आकर भी शरणार्थी बन कर जीवन जिया

सारा बचपन तो जैसे दुखों के नाम लिख दिया।

रुई के बिस्तर पर सोने वाले इन बच्चों ने

ज़मीन पर न जाने कितनी रातें बिताईं

दूध दही और पकवानों से पेट भरने वालों ने

मुट्ठी भर चने खाकर अपनी भूख मिटाई

माँ बहनों का यह हाल देखकर बाल हृदय भी स्वयं को रोक न सका

मेरे पिता और उनके भाई ने सिर पर रखकर टॉफी बिस्कुट बेचा

बदले में कुछ पैसे कमा कर जब पिता की हथेली पर रखे

तो उनका एक मज़बूत हाथ दुख और ग्लानि से बच्चों के गाल पर पड़ा

पर अगले ही पल उस पिता का छलनी हृदय बच्चों के अभाव देख कर रो पड़ा।

आज भी अपने पिता की आँखों में मुझे

उनके पिता के लिए अपार दुख दिखता है

जो विभाजन के दर्द को सह कर

अपने छोटे-छोटे मासूम बच्चों की ज़िंदगी बचाने को

लौह-पुरुष बन कर खड़े हो गए थे

लेकिन मोम जैसे दिल पर लोहे का शरीर बहुत दिनों तक

ढाल न बन पाया और अभागे-

अच्छे दिन देखने से पहले ही काल-कवलित हो गए।

हम जैसे न जाने कितने परिवारों ने तब यह दंश झेला

पर अभी भी हम हर समय ऐसी परिस्थितियाँ

झेलने को मजबूर रहते हैं

क्यों देश के टुकड़े करने को कुछ लोग बेचैन रहते हैं?

अब तो हर तरफ शांति क़ायम हो

कोई भी अपनी जड़ से न उखाड़ा जाए

ऐसा कुछ अब आलम हो।

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