आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी की तरक्की के कारण इतने संसाधन विकसित हो गये हैं कि मनुष्य के आराम,मनोरंजन और रहन-सहन के ढंग में बहुत परिवर्तन आ गया है।बिजली का उत्पादन कई गुना बढ़ गया है लेकिन ह्रदय में अंधकार भी उतना ही बढ़ गया है।उत्पादन बढ़ते जा रहे हैं लेकिन मन उतने ही पीले पड़ते जा रहे हैं,सूखते जा रहे हैं।आनंद और उल्लास खोता जा रहा है,हिंसात्मक घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं।परीक्षित के लिए तो यह कहा गया था कि तुम्हारे लिए सात दिन का समय है उसके बाद तुम्हें काल-सर्प डंस लेगा लेकिन आज के मनुष्य को तो प्रतिक्षण काल-सर्प दिखाई दे रहा है।जैसा कि इस युग के एक बड़े मनीषी व दार्शनिक बर्टन रसल ने कहा है, “इस पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु-दण्ड दिया जा चुका है।अब सुबह उठकर वह अपने आपको जीवित पा ले तो यह उसका सौभाग्य है और समाप्त हो जाए तो उसका दुर्भाग्य।मृत्यु का भय उसके सर पर मंडरा रहा है।आज हम उस मृत्यु-दंड के अधीन जीवित हैं।महाविनाशकारी शक्तियां बढ़ती जा रहीं हैं।”
कभी चिंतन करिए कि ऐसा क्यों हो रहा है?और मेरे ख्याल से लगभग हर व्यक्ति आज के माहौल को देखकर अपने-अपने तरीके से हालातों का निरीक्षण कर रहा है और जिसका जो भी निष्कर्ष निकलता हो परन्तु एक बात तो निश्चित है कि इसके पीछे हमारी विचारधारा,कुंठित और स्वार्थी सोच,धर्म-संस्कृति के लिए अत्यधिक संकुचित विचार और भी न जाने क्या-क्या कारण हैं जो हम मनन करेंगे तो हमारे मन में आएँगे ही।आश्चर्य और दुःख तो तब होता है जब समाज के बड़े-बड़े पदों पर बैठे हुए लोग,बुद्धिजीवी वर्ग,कलाकार और राजनीतिक व्यक्ति भी ऐसी ही सोच रखते हैं और फिर ऐसे ही बयान देकर माहौल को गन्दा करते हैं।कभी याद करिए कि आज से बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व भगवान (चाहे वे किसी भी धर्म के आराध्य हों),के बारे में कुछ भी अनर्गल नहीं बोला जाता था और थोड़ा बहुत अगर कहीं कुछ होता भी था तो उसकी निंदा की जाती थी और बड़े-बड़े सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग तो ज़्यादातर इस तरह की बातों से बचते ही थे।लेकिन इधर कुछ वर्षों से तो बिलकुल हद हो गई है।धर्म को लेकर भी इतनी राजनीति की जा रही है कि मन दुखी हो जाता है।मैं अपने पिछले लेखों में इन बातों का उल्लेख कर भी चुकी हूँ इसलिए अब यहाँ उन बातों को दोहराने की मै ज़रूरत नहीं समझती हूँ।
आज मैं जब अपना यह लेख पोस्ट करुँगी तो यह मेरे ब्लॉग पर पचासवां लेख होगा।इसके लिए मैं अपने सभी पाठकों का दिल से आभार व्यक्त करती हूँ क्योंकि यदि वे इतने प्रेम से मेरे लेखों को न पढ़ते तो शायद मैं इतना लिख ही न पाती।इसलिए आप सभी का आभार और बहुत-बहुत बधाई।आज के इस अवसर पर मैं सोच रही थी कि किस विषय पर आपके साथ विचार साझा करूँ?इधर नवरात्रि और दशहरा हम सबने मनाया और जगह-जगह रामलीला के आयोजन भी हुए।आप सबने देखा होगा इसमें हनुमान जी को बन्दर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और यह बात हम सभी अपने बचपन से ही देखते आये हैं और बन्दर को देखते ही हमें लगता है कि हनुमान जी हैं।मैं हनुमान जी के बारे में ही कुछ लिखना चाहूंगी,क्योंकि हाल के वर्षों में उनके नाम को लेकर,उनके बन्दर होने को लेकर कई तरह की बातें बहुत भद्दे तरीके से की गईं हैं जो उन्हें आराध्य और ईष्ट मानने वाले लोगों के दिलों में निश्चित रूप से चुभी हैं।मेरे विचार से किसी की आस्था पर आघात नहीं करना चाहिए क्योंकि आस्था को किन्हीं प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती है।मैंने कुछ ग्रंथों का अध्ययन करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास भर किया है।आप भी मेरे साथ ज़रूर इन बातों को एक बार सोचिये।
रामायण में वानर प्रसंग के अंतर्गत हनुमान प्रधान पात्र हैं।अखंड ब्रहमचर्य,अनुपम शौर्य,अप्रतिम नीतिमत्ता,अलौकिक पुरुषार्थ,अनूठा पांडित्य एवं बुद्धिगरिमा और इन सब के साथ-साथ आदर्श सेवा भावयुक्त अद्भुत समर्पण भाव,अतुलनीय नम्रता एवं शालीनता-इन सब गुणों का समावेश महावीर हनुमान में था।इस आदर्श वीर को ‘वानर’ शब्द से भ्रान्तिवश ‘बन्दर’ बनाते समय लगता है बुद्धि और विवेक से काम नहीं लिया गया।क्या हनुमानजी में जितने गुण थे,वे एक बन्दर में होने संभव हैं?इस सम्बन्ध में मैंने बाल्मीकि रामायण का ही थोड़ा-बहुत अध्ययन किया और जो तथ्य सामने आते हैं उन पर आप भी एक बार विचार कर देखिये कि क्या यह एक बन्दर के कार्यकलाप हो सकते हैं-
हनुमानजी की बातचीत सुनकर श्री राम अपने भाई लक्ष्मण से कहते हैं कि वह ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद को अच्छी तरह जानता है और इसे व्याकरण का भी अच्छा ज्ञान है। (वाल्मीकि रामायण,किष्किंधा सर्ग 3/28-29)।
वर्षाकाल बीतने पर विलासिता पूर्वक राज्य कर रहे सुग्रीव को सीता की खोज करने के लिए हनुमान ने महामंत्री के नाते जो उपदेश दिया था,क्या वैसा उपदेश वेदवेत्ता विद्वान के अतिरिक्त और कोई कर सकता है। (वाल्मीकि रामायण,किष्किंधा सर्ग,29/9-21)।
माता सीता का पता लगाने जब हनुमान जी लंका की अशोक वाटिका में गये तो पहले सीता ने उन से बात करने में संकोच किया,परन्तु जब हनुमान ने विश्वास दिलाया कि वह राम का सन्देश लेकर आए हैं और राक्षसों के डर से रात में लंका में दाखिल हुए हैं तब सीता ने प्रसन्नता प्रकट की।(वाल्मीकि रामायण सुन्दर सर्ग,35)।इस घटना से भी यह स्पष्ट होता है कि हनुमानजी बन्दर नहीं थे।यदि वे बन्दर होते तो लंका में रात के समय चुपके से न घुसते,वरन दिन में ही अन्य पशुओं की भांति उछलते-कूदते घुस जाते,क्योंकि राज्य के गुप्तचर भी केवल विदेशी व्यक्तियों की देखरेख करते हैं न कि पशु-पक्षियों की।अतः मुझे तो ऐसा लगता है कि हनुमानजी पूंछ वाले बन्दर तो नहीं ही थे।
वाल्मीकि रामायण में कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर कोई भी हनुमानजी को ‘बन्दर’ नहीं मान सकता-
सीताजी की खोज के लिए वानरों को सब दिशाओं में भेजने का एक प्रसंग आता है।हनुमानजी की कार्य क्षमता और बुद्धिकौशल देख कर सुग्रीव आश्वस्त हो कर,श्री राम के समक्ष ही उन से कहते हैं:
त्वय्येव हनुमन्नास्ति बलं बुद्धिः पराक्रमः
देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नय पंडितः।
(किष्किंधा सर्ग,44-7)।
(अर्थात हनुमान ! तुम नीतिशास्त्र के पंडित हो,बल,बुद्धि,पराक्रम,देशकाल,अनुसरण और नीतिपूर्ण बरताव,यह सब गुण तुम में हैं।)
इसी प्रसंग में सुग्रीव हनुमान जी के और भी गुणों का विस्तृत रूप से वर्णन करते हैं।स्वयं श्री राम भी हनुमानजी की कार्यकुशलता में पूरा विश्वास रखते हैं,तभी तो उन्हें सीता के लिए अपनी मुद्रा उतार कर दे देते हैं और सन्देश भी भिजवाते हैं।लंका में प्रवेश और वहां पहुँच कर सीता माता से भेंट रूपी कार्यसिद्धि में हनुमानजी की बुद्धि प्रखरता तो हम सभी देखते ही हैं।रावण जैसे शत्रु के गढ़ में प्रवेश कर सफलता पूर्वक लौटना भी उनके असाधारण बुद्धिवैभव एवं कार्यकुशलता का ही परिचायक है।
इसी तरह हम देखते हैं कि समुद्र लांघने के प्रसंग में भी सभी वानर अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे हैं,पर हनुमानजी सर्वथा शांत हैं।यहाँ उन की निरभिमानता दर्शनीय है।इस अवसर पर जाम्बवान कहते हैं-
“सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ तथा वानर जाति के अद्वितीय वीर हनुमान ! तुम एकांत में चुप क्यों बैठे हो,कुछ बोलते क्यों नहीं?तुम तो तेज और बल में श्री राम और लक्ष्मण के तुल्य हो।वानर श्रेष्ठ ! तुम में समस्त प्राणियों से बढ़कर बल,बुद्धि,तेज और धैर्य है फिर तुम अपना स्वरुप क्यों नहीं पहचानते?”
(किष्किंधा सर्ग,66/2-7)
क्या कोई बन्दर तेज,बल और बुद्धि में राम और लक्ष्मण के तुल्य हो सकता है?ऐसा बल,ऐसा पराक्रम,इतना पांडित्य और ऐसी बुद्धिमत्ता एवं नीतिमत्ता के धनी होने पर भी हनुमान को अभिमान छू भी नहीं गया था।वे निरभिमानता और सेवाभाव की मूर्ति थे।जहाँ कोई भी तैयार न हो वहां हनुमान सदैव सेवार्थ प्रस्तुत रहते थे।केवल एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा-
मेघनाद आज साक्षात् काल बन कर रणक्षेत्र में आया है।उस के विकट प्रहार से लक्ष्मण भी मूर्छित हो गये हैं।सभी व्यग्र और चिंतातुर हैं।इस समय जाम्बवान की आँखें सिर्फ हनुमानजी को ढूँढ़ रही हैं।विभीषण के यह पूछने पर कि आप और किसी की कुशलता न पूछ कर सिर्फ हनुमान की कुशलता क्यों जानना चाहते हैं?इस बात का उत्तर जाम्बवान ऐसे देते हैं-
“राक्षसराज ! मैं हनुमान को इस लिए पूछ रहा हूँ क्योंकि इस समय वीरवर हनुमान यदि जीवित हों तो यह मरी हुई सेना भी जी सकती है और यदि उन के प्राण निकल गये हों तो हम जीते हुए भी मृतक के समान हैं।”(वाल्मीकि रामायण युद्ध सर्ग,74/21-22)
अंत में हनुमानजी ही संजीवनी बूटी ला कर लक्ष्मण जी की प्राण रक्षा करते हैं।दौत्य-कर्म में तो वे पारंगत थे।सेवक की कृतकृत्यता इसी में है कि स्वामी उस का प्रशंसक हो।श्री राम हनुमानजी के प्रशंसक ही नहीं बल्कि उन के प्रति कृतज्ञता का भाव भी रखते थे।अब प्रश्न यह उठता है कि इस धर्मशील,न्यायशील,शौर्यशील,पराक्रम और पौरुष के प्रचंड रूप दीप्तिमान देवता को ‘बन्दर’ कहा जा सकता है?
हनमान,सुग्रीव आदि को हम ‘बन्दर’ मानने से पहले एक बार वाल्मीकि रामायण के कुछ प्रसंगों को पढ़ें अवश्य और फिर अपने सवालों के जवाब ढूंढें-
क्या कभी बंदरों में भी वेदवेत्ता व महात्मा ब्राह्मण मंत्री होते हैं? (किष्किंधा सर्ग,3/26-35)।
क्या कभी बन्दर भी अग्निहोत्र कर वेद मन्त्रों से मैत्री ढृढ़ किया करते हैं? (किष्किंधा सर्ग,5/14-16)।
क्या कभी बंदरों में भी शास्त्रविहित पाप पुण्य की मर्यादा होती है? (किष्किंधा सर्ग,18/4/41)।
क्या कभी बंदरों का राजतिलक,औषधियुक्त जल से स्नान और हवन यज्ञ होता है और क्या उन में राज्याधिकार की वैसी पद्धति होती है जैसी सुग्रीव के राज्य में थी? (किष्किंधा सर्ग,26/24)।
क्या किसी बन्दर को भी ‘आर्य’ कहा जाता है? (किष्किंधा सर्ग,5-5/7) बाली की मृत्यु पर उस की स्त्री ने उसे ‘आर्य’ कहकर विलाप किया था। (किष्किंधा सर्ग,20/13)।
क्या कभी बंदरों में भी तारा,रूमा,अंजना जैसी पतिव्रता और शास्त्रों की विदुषी स्त्रियाँ होती हैं? (किष्किंधा सर्ग,35/3-5)।
क्या कभी किसी बन्दर को विद्वानों या राजाओं की सभा में बुलाया जाता है? (उत्तर सर्ग,40)।
परन्तु वास्तविकता यह है कि इन तर्कों को पढ़कर भी एक शंका होती है कि यदि हनुमानजी आदि बन्दर नहीं थे तो उन्हें ‘वानर’, ‘कपि’ या ‘प्लवग’ आदि शब्दों से संबोधित क्यों किया गया है,जो कि प्रायः बन्दर के पर्यायवाची हैं? इस शंका का समाधान यही है कि हनुमानजी आदि के यह सब नाम उन के गुण व कर्मों के अनुसार हैं।स्पष्टीकरण के लिए इन शब्दों के अर्थ ‘शब्द कल्पद्रुम’, ‘शब्दार्थ चिंतामणि’ और ‘शब्द-स्रोत महानिधि’ आदि संस्कृत के प्रतिष्ठित कोशों के अनुसार निम्नलिखित हैं-
प्लवग-इस का अर्थ है नौकाओं से तैरने वाला,क्योंकि ‘प्लव’ का अर्थ है,जलतरण साधन।कई विद्वानों के मतानुसार ‘प्लवग’ का अर्थ है,लम्बा कूदने वाला।क्योंकि इस जाति के मनुष्य बंदरों की भांति लम्बी-लम्बी छलांगें लगा सकते थे,अतः इन सबका नाम ‘प्लवग’ पड़ा।
कपि-इस का अर्थ है, मदिरा आदि का त्याग कर शुद्ध जल पीने वाला,समुद्र जल में भी अपनी आत्मा की रक्षा करने वाला तथा सदा पापों से डरने वाला पुरुष ‘कपि’ है और यह सारे गुण हनुमानजी में थे।उन का नाम ‘हनुमान’ इसलिए था क्योंकि उन की ठोड़ी टेढ़ी थी।
वानर-इस का अर्थ है,वन के फल-फूल खाने वाला वन्य निवासी-निरामिष भोजी आर्य।
यदि हनुमान,सुग्रीव आदि बन्दर नहीं थे तो ‘वानर जाति’ को आर्य जाति की एक उपजाति माना जा सकता है। ‘वानर’ का अर्थ बन्दर नहीं अपितु यह तो एक जाति विशेष का नाम था।जिस प्रकार यक्ष,देव,गंधर्व आदि स्वभाव और कर्मों के अनुसार मनुष्य जाति के भेद थे,उसी प्रकार एक ‘वानर’ जाति भी थी।
इसी सन्दर्भ में एक अँगरेज़ विद्वान का मत भी देखा जा सकता है-
“संस्कृत कोशों में वानर उसे लिखा है,जो वन में रहे और अपनी आयु वन के फल-फूलों का भक्षण कर के काटे।वास्तव में यह लोग इसी भांति अपना जीवन व्यतीत करते थे और भील तथा गोंड (आदिवासी जातियां) लोगों के समान रहते थे।”
इन प्रमाणों के अध्ययन के पश्चात् मुझे नहीं लगता कि कोई भी महावीर हनुमान को बन्दर मानेगा।सच भी है क्या ऐसा महापुरुष कभी बन्दर हो सकता है?
बहुत ही अच्छा लेख
इस तरह की जानकारी लिखने के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं और धन्यवाद
बहुत सुंदर… भावना जी ????
प्रभु श्रीराम जी के अनन्य भक्त, पवनसुत भगवान श्री हनुमान जी के जन्मोत्सव के पावन पर्व की हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएं।