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शायर राजिंदर सिंह बग्गा जी से एक मुलाक़ात

“मैं अतीत को सिर्फ वर्तमान की प्रेरणा मानता हूं।सुनाने के लिए ज़्यादा कुछ भी नहीं है।मेरा मानना है कि अतीत ही वर्तमान का पाथेय है, मगर जब वह केवल सुनाने की वस्तु हो जाती है तो मनुष्य को बूढ़ा बना देती है।कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने के लिए उदात्त स्मृतियां हमेशा प्रेरणा का काम करती रहीं हैं।मेरा मानना है कि मनुष्य को स्मृतिजीवी नहीं,कृतिजीवी होना चाहिए।जब तक कर्म में जिएंगे,जवान रहेंगे।”

उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल एवं हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार विष्णुकांत शास्त्री जी ने जब 2 मई 2003 को अपने जीवन के 75वें वर्ष में प्रवेश किया,उसी समय के उनके यह शब्द हैं।
जब शास्त्री जी से सवाल किया गया कि
आपने 74 वर्ष के जीवन में क्या खोया,क्या पाया?
तो उनका जवाब था,

“बहुत कुछ खोया तो काफी पाया भी।”
आपका मानना था कि जो मनुष्य स्मृतिजीवी हो जाता है, बूढ़ा भी वही होता है पर जो कृतिजीवी हो गया,वह कभी बूढ़ा नहीं होता।

आज जिस शख़्सियत से मैं आपका परिचय करवा रही हूं,उन्हें सच्चे अर्थों में कृतिजीवी कहा जा सकता है।पेशे से व्यवसायी और शौकिया शायरी,गायकी और चित्रकारी करने वाले प्रसिद्ध ग़ज़लकार राजिंदर सिंह बग्गा जी को सुनना,पढ़ना ही अपने आप को सुकून और शांति देता है।वास्तव में ऐसे कृतिजीवी लोगों पर किसी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों का भी कोई दुष्प्रभाव नही पड़ता और वे अपनी कला,अपने फन को निखारने में लगे रहते हैं।
बग्गा जी का जन्म अमृतसर पंजाब में हुआ।आपके पिता एक व्यवसायी थे और सिटीलाइट सिनेमा के मालिक थे।बग्गा जी को लेखन का शौक बचपन से ही था और उनकी पहली कविता दस साल की उम्र में जालंधर से छपने वाले अखबार ‘पंजाब केसरी’ में प्रकाशित हुई।उसके बाद से तो कविताओं ,कहानियों और गज़लों के छपने का सिलसिला जो शुरू हुआ तो चलता ही आ रहा है।लिखने के अलावा बग्गा जी को चित्रकारी,गायकी,फोटोग्राफी, क्रिकेट और बैडमिंटन खेलने का भी शौक है।आपने बताया कि कक्षा में बैठे बैठे अपने अध्यापकों के हू ब हू चित्र बना दिया करते थे।
आपके अनुसार ज़िंदगी के इस लंबे सफर में जो भी उतार-चढ़ाव देखे,जो तजुर्बे हासिल किए,उन सबको शब्दों में संजोकर अपनी शायरी के माध्यम से आपने पेश करने की कोशिश की है।
आपकी दो पुस्तकें-‘अनछुए अल्फ़ाज़’ और ‘अनछुए एहसास’ प्रकाशित हो चुकी हैं और पाठकों द्वारा पसंद भी की जा रही हैं।

विनीत सिंह गलहोत्रा
( इंग्लिश के जाने माने लेखक जिनकी दो पुस्तकें inner calls और truthful untruths प्रकाशित हो चुकी हैं ) ने बग्गा जी की रचनाओं की बड़े सुंदर तरीके से समीक्षा की है-

” जब आप बग्गा जी की शायरी पढ़ते हैं तो आपको तुरंत इस बात का एहसास हो जाता है कि यह सबसे अलग , गहरी ,अर्थपूर्ण एवम् समसामयिक है। यह निर्णय हम इस लिए कर लेतें हैं क्यूंकि बग्गा जी के पास एक विलक्षण क्षमता है जिससे वो अपनी ज़िन्दगी के तजुर्बों को शायरी में ढालकर एक ऐसा जादूई असर पैदा करतें हैं जिसे पढ़ते ही हर कोई उससे खुद ब खुद अभिभूत हो जाता है। उनका हर ख्याल, उनकी हर रचना इतनी सशक्त होती है कि सीधा पढ़ने वाले की रूह को स्पर्श करती है। जरूरी नहीं कि शायरी दार्शनिकता से भरपूर हो मगर जब दार्शनिकता शायरी के ज़रिए अभिव्यक्त की जाती है तो वो कालजयी बन जाती है। इनकी ज्यदातर रचनाएं जीवन के उच्चतम फलसफे को समझने में बड़ी सहायक होती हैं और वर्तमान ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करने में भी सक्षम हैं।”

उनकी हर ग़ज़ल अपने आप में खास और दिल को छूने वाली है।एक दो पर नज़र डालते हैं-

“आंधियों का सामना गर करेगा ही नहीं
तू जीतेगा कैसे जब लड़ेगा ही नहीं।

गलतियां होती हैं उनसे जो कर्म करते हैं
वो क्या ग़लती करेगा जो कुछ करेगा ही नहीं।

हैरां हूं देख के मैं तो आदमी के लक्षण
इस तरह जी रहा है जैसे मरेगा ही नहीं।

परखोगे जब ज़माने को सब भरम टूट जायेंगे
उम्मीद पे ख़रा कोई उतरेगा ही नहीं।

बड़ा नाज़ुक होता है ये ऐतबार का धागा
टूट जाए इक बार तो जुड़ेगा ही नहीं।

न आएगा दम शायरी में न जान लफ़्ज़ों में
ज़िन्दगी के रंग शायर गर भरेगा ही नहीं।

आज़माना है ‘ राज ‘ को,जान मांग के देखिए
इन छोटी छोटी बातों पे वो अड़ेगा ही नहीं।”

एक ग़ज़ल और-

“जंग ए जिन्दगी में जब मेरी मात चल रही थी।
मेरी उम्मीद ओ हिम्मत मेरे साथ चल रही थी।

बहुत याद आए सच कल तुम मुझको
दग़ाबाज़ों की कहीं बात चल रही थी।

कब तक झेलता मेरा मिट्टी का घर उसको
कई रोज़ से मुसलसल बरसात चल रही थी।

ज़िन्दगी में शिकस्त खा इक बात समझ आई
मेरी जीत में प्रभु की करामात चल रही थी।

दिन रात मेरे दिल ओ जां में बसने वाली
कल मिली तो बच के दो हाथ चल रही थी।

जागूं तो उनका ख्याल,सोऊं तो ख्वाब उनका
कुछ यूं मेरी फुरक़त की रात चल रही थी।

गुज़रते लम्हों ने शरमा के फेर लीं आंखे
जब उनसे मेरी मुलाक़ात चल रही थी।

इतनी धूम से निकला ‘ राज ‘ का जनाज़ा
यूं लगा जैसे कोई बारात चल रही थी।”

One thought on “शायर राजिंदर सिंह बग्गा जी से एक मुलाक़ात

  1. सुंदर संग्रह और शानदार शायरीयों से रूबरू होने का मौका मिलेगा यह पढ सुन कर जिञासा उतपन्न हो रही ।सुखद वार्तालाप ।

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