– अजय “आवारा”
आज, धर्म के नाम पर चर्चा करना, धर्म के नाम पर अधिकार मांगना, धर्म की आड़ में मानवता की बात करना, और धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ एवं जिद को सिद्ध करना, शायद एक फैशन बन चुका है। आज, इंसान धर्म के नाम पर बुरी तरह बंट चुका है।
सवाल यह उठता है, कि क्या धर्म इंसानियत और इंसानों को बांटने के लिए है ? जहां तक मेरी समझ का सवाल है, उसके अनुसार, किसी भी धर्म में मानवता को बांटना सिखाया नहीं गया है। वस्तुत: धर्म की स्थापना तो मानवता को जोड़ने के लिए, मानव की भलाई के लिए एवं मानव की सुख शांति के लिए की गई है। जब, सभी धर्मों में मानवता की भलाई व मानसिक शांति की बात की गई है, तो फिर, किस आधार पर, आज का मानव बंटा हुआ है? क्यों मानव धर्म के मूल्यों से भटक गया है ?
जब भी हम धर्म की बात करते हैं, तो अक्सर अपनी परंपराओं का हवाला देते हैं। पर क्या, परंपरा धर्म की सही परिभाषा है? क्या हम परंपरा के नाम पर धर्म को एक किनारे में नहीं खिसका रहे हैं? आखिर परंपरा एवं रीति रिवाज आए कहां से ? हम इनको क्यों मानने लगे? अक्सर, धर्म का हवाला देकर हम अपनी परंपराओं को निभाने की जिद पर अड़े रहते हैं। क्या धर्म को हम समझ भी पाए हैं? क्या हम धर्म का सटीक विश्लेषण कर भी पाए हैं? या हम धर्म के मूल भाव से कोसों दूर बैठे, अपने आप में ही उसकी व्याख्या कर रहे हैं।
साधरण शब्दों में, धर्म जीवन जीने का एक नियम है।अगर यह नियम है तो तथाकथित रीत कहां से आ गई? इंसान के जीवन में एवं समाजिक परिवेश में बदलाव तो आते ही रहते हैं। आखिर बदलाव प्रकृति का नियम है और इस बदलाव के अनुसार ही क्रियान्वयन की परिस्थिति भी बदल जाती है और क्रियान्वयन की यह बदली परिस्थिति ही परंपरा एवं रीति रिवाज का रूप ले लेती है। जिसे हम यूं ही निभाते चले जाते हैं। जबकि बाद में उसकी सार्थकता भी खत्म हो गई होती है। जो परंपरा किसी विशेष परिस्थिति के कारण हमारे समाज में आई थी, वह क्या दूसरी परिस्थिति में बदली नहीं जानी चाहिए? एक ही परंपरा हर परिस्थिति में तो एक समान लागू नहीं हो सकती। फिर किस आधार पर हम उस रीत को ही घसीटते फिरते हैं, और धर्म का हवाला देकर रीति-रिवाज के लिए लड़ते रहते हैं।
इसका सीधा अर्थ यह हुआ, कि हमने परंपराओं की लड़ाई में धर्म के मूल भाव को एक तरफ रख दिया है और हम धर्म के मूल भाव को समझ ही नहीं पाते, तो किस आधार पर हम धर्म की दुहाई देकर अड़ जाते हैं ? बड़े दुख की बात है कि धर्म के नाम पर इंसान बंट गया है। बड़े अज्ञान की बात है कि किसी परिस्थिति विशेष में लागू की गई पद्धति को हमने अपने जीवन का अंग मान लिया, अपने धर्म का आधार मान लिया। जबकि दोनों में इस तरह की कोई समानता या सामंजस्य है ही नहीं। यह बात, किसी एक विशेष धर्म के लिए लागू नहीं होती। गाहे बगाहे, हर धर्म में यही स्थिति है। हर धर्म में, इसका पालन करने वाले लोग हैं, अपने ही धर्म के वास्तविक अर्थ से कोसों दूर हैं। इसके लिए उस धर्म का ज्ञान देने वाले, धर्मगुरु भी जिम्मेदार हैं। जो परंपराओं के नजरिए से धर्म की व्याख्या करते हैं और हम आंख मूंदकर उन पर भरोसा कर लेते हैं।अब इसे तथाकथित धर्म गुरुओं का अर्ध ज्ञान कहें या उनके दिमाग का भटकाव या एक साधारण मानव के मस्तिष्क की निष्क्रियता। हमें यह समझना होगा कि परंपरा एवं एवं रीति-रिवाज हमारा धर्म नहीं है। यह सामाजिक जीवन की एक पद्धति मात्र है।
क्या हम अपने धर्म में एक बार झांक कर देख पाएंगे? क्या हम एक बार अपने धर्म के मूल भाव का अध्ययन कर उसका सही विशेषण कर पाएंगे? क्या उसके सही अर्थ को समझ पाएंगे? अगर हम ऐसा कर पाएं, तो शायद हमें किसी को समझाने की आवश्यकता ही ना पड़े, और धर्म के नाम पर विवाद समाप्त हो जाए। मुझे लगता है, आज का मानव धर्म के नाम पर कहीं भटक गया है।
एकदम सटीक विश्लेषण हैं ।