Blog

सुशांत सिंह राजपूत : शांत मौत की अशांत पुकार

सुशांत सिंह राजपूत की असामयिक मौत ने सबको दुखी किया है लेकिन एक इतने जीवंत कलाकार का इस तरह शांत हो जाना हृदय को व्यथित कर देता है।सभी जानते हैं कि 14 जून को वे अपने घर के कमरे में मृत पाए गए थे,उन्होंने फांसी लगाकर अपनी जान दी। आज दस दिन बीत गए उस घटना को घटे लेकिन अभी तक यह खुलासा भी नहीं हो पाया कि उनकी मौत कैसे और क्यों हुई?सैकडों प्रश्न उनकी मौत अपने पीछे छोड़ गई है।उनका एक पुराना इंटरव्यू मैं सुन रही थी,जिसमें उनसे प्रश्न किया गया था कि उन्हें सबसे ज़्यादा डर किस चीज़ से लगता है तो इस पर उनका जवाब था,”मौत से”।ऐसे में यह बात बिल्कुल गले नहीं उतरती कि इतना जीवंत व्यक्ति ,एक शानदार कलाकार जिसका कैरियर अभी ऊंचाइयों पर था और उम्र भी ऐसी थी कि अभी बहुत सारे विकल्प बाकी थे तो ऐसे में उसने मौत को कैसे गले लगाना उचित समझा?वो कौन सा ऐसा दुख था जिसके आगे उसे मौत छोटी लगी?खैर यह तो जांच का विषय है और पुलिस तथा प्रशासन की टीम इन चीजों को देख भी रही है लेकिन हैरानी और दुख यह होता है कि किसी की मौत पर भी कैसे लोग अपनी रोटियां सेंकने लग जाते हैं।यह तो पशुवत आचरण है जिसे हम सब आज स्वीकार करने को विवश हैं।
सुशांत के शांत होते ही अनेकों इल्ज़ामों,सवाल जवाब ,दोषारोपण की जैसे झड़ी लग गयी है।सब अपने अपने निष्कर्ष निकाल कर निर्णय दे रहे हैं।
हद तो यह हो गई है कि बिना किसी प्रमाण के कई फिल्मी हस्तियों के खिलाफ केस दर्ज कर दिए गए हैं कि उन्होंने इस कलाकार को मौत के मुंह में जाने के लिए विवश किया।सदी के महानायक अमिताभ बच्चन सहित चार लोगों के खिलाफ अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट पीयूष त्रिपाठी की अदालत में लखनऊ में अधिवक्ता पार्थ चतुर्वेदी ने आपराधिक परिवाद दायर किया है।
इसके अलावा बिहार में इस पूरे मामले को लेकर करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, साजिद नाडियाडवाला, सलमान खान, संजय लीला भंसाली, भूषण कुमार, एकता कपूर और दिनेश विजन के खिलाफ पूरा मामला दर्ज किया गया है।
इन सब लोगों पर यह आरोप है कि इन्होंने सुशांत के साथ जाने अनजाने ऐसा कुछ किया कि अंत मे उसे मजबूर होकर अपनी जान देने पर मजबूर होना पड़ा।फ़िल्म इंडस्ट्री पर नेपोटिज्म( भाई भतीजा वाद) और गुटबाजी के आरोप लग रहे हैं।यह आरोप कोई पहली बार ही नहीं लग रहे बल्कि कई बरसों से इस तरह की बातें हो रही हैं परंतु मेरा यह चुभता प्रश्न है कि दूसरे किसी भी कारोबार की तरह यहां भी लोग अपने हिसाब से टीम बनाने के लिए स्वतंत्र हैं।अब इस टीम में यदि कोई सिर्फ नेपोटिज्म के सहारे या गुटबाजी के सहारे प्रवेश लेता है तो उसका कैरियर बहुत ऊंचाइयों तक नहीं जा सकता।एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जहां योग्यता ने अपना परचम लहराया और अयोग्य होने पर फ़िल्म इंडस्ट्री के दिग्गजों के भाई भतीजे या बेटे भी नहीं चले।कपूर परिवार को फ़िल्म इंडस्ट्री में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं।इसमें जो योग्य थे उनके नामों की चमक आज तक कायम है और हमारे दिलों पर वे राज कर रहे हैं लेकिन राज कपूर जैसा महान निर्देशक कलाकार भी अपने पुत्रों रणधीर कपूर और राजीव कपूर के कैरियर को नहीं चमका पाया।यद्यपि इन दोनों कलाकारों को ही अपने पिता का पूरा सहयोग मिला लेकिन बिना हुनर के सहयोग नहीं चलता।अमिताभ बच्चन जैसा महानायक भी अपने इकलौते बेटे अभिषेक बच्चन के कैरियर को नहीं संवार सका जबकि अभिषेक को भी कई मौके मिले।जुबली कुमार के नाम से मशहूर राजेन्द्र कुमार के बेटे कुमार गौरव,मनोज कुमार के बेटे कुणाल गोस्वामी,देवानंद के बेटे सुनील आनंद महान गायक मोहम्मद रफी के बेटे,गायक किशोर कुमार के बेटे अमित कुमार ,फ़िल्म इंडस्ट्री की स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी की बेटी ईशा,जितेंद्र के बेटे तुषार कपूर और भी न जाने अनगिनत नाम हैं जो भाई भतीजावाद की श्रेणी में आकर भी सफलता का स्वाद नहीं चख सके जबकि इन्हें अपने परिवारों का पूरा सहयोग था।इसके विपरीत यहां मैं एक उदाहरण दूंगी करिश्मा कपूर और करीना कपूर का।जिन्हें पारिवारिक सहयोग न मिलने के बाद भी सफलता की बुलंदियां मिलीं।
ऐसे में यही कहा जा सकता है कि गुटबाजी या भाई भतीजावाद मौका अवश्य देता है और राहों को आसान भी कर देता है लेकिन सफलता तो अपनी मेहनत और योग्यता से ही मिलती है।राजेश खन्ना जब इंडस्ट्री में आये तो उन्हें ‘गोरखा जैसा ‘ कहा गया लेकिन योग्यता थी और किस्मत भी तो वे इस इंडस्ट्री के पहले सुपर स्टार बने।ऐसे ही सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को भी उनकी लंबाई के कारण अयोग्य घोषित कर दिया गया था लेकिन आज उन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं।
ऐसे कितने उदाहरण हैं जो मुझे इस समय याद आ रहे हैं और यदि मैं लिखती जाऊं तो मेरे पाठक भी शायद ऊब जाएंगे।महान गायक किशोर कुमार को तो सभी जानते हैं।महान संगीतकार नौशाद ने किशोर कुमार को कभी वरीयता नहीं दी और अपने पसंदीदा गायक मोहम्मद रफी से ही उन्होंने ज़्यादा गाने गवाए।नौशाद ने किशोर से सिर्फ एक गाना “हेलो हेलो क्या हाल है” (सुनहरा संसार 1975) गवाया और वह भी पता नही किन्हीं कारणों वश फ़िल्म में नही शामिल हुआ।फिर भी इस उपेक्षा का किशोर कुमार के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा और कैरियर की कितनी ऊंचाइयां उन्होंने प्राप्त कीं यह तो सभी जानते हैं।यह तो काफी पुराने उदाहरण हैं लेकिन अभी 20-25 वर्ष पहले जब इंडस्ट्री में सलमान खान और आमिर खान जैसे कलाकारों की तूती बोल रही थी तभी बिल्कुल गैर फिल्मी बैकग्राउंड से आये अक्षय कुमार और शाहरुख खान ने अपनी सफलता का परचम लहराया और अपने दम पर इस इंडस्ट्री में स्थापित हुए।आज भी कार्तिक आर्यन जैसे उदाहरण हैं जिन्हें बिना किसी फिल्मी बैकग्राउंड के फिल्में भी मिल रही हैं और सफलता भी तो वही धर्मेंद्र जैसे दिग्गज अभिनेता के पौत्र और सनी दयोल जैसे स्थापित अभिनेता के पुत्र की फ़िल्म कब आयी और कब चली गयी शायद ही किसी को याद हो।बहुत से लोग तो धर्मेंद्र के पौत्र का नाम भी भूल गए होंगे।
अब ऐसे में मुझे यह चुभन होती है कि कोई भी ऐसी घटना जब घटती है तो खासकर सोशल मीडिया पर बहुत ही अनाप शनाप बातें चलने लग जाती हैं।जाने वाले की आत्मा तो दुखती ही है साथ ही उसके घरवालों और दोस्तों पर क्या बीतती है यह कोई भी सोच नहीं पाता।
मैं मानती हूं कि भाई भतीजावाद और गुटबाजी फ़िल्म इंडस्ट्री में अंदर तक घुसी हुई है।जो भी इल्जाम लगाए जा रहे हैं वह किसी हद तक ठीक हैं लेकिन दूसरा सिरा इस बात का यह भी है कि इसी इंडस्ट्री ने ही बिना किसी परिचय के सुशांत को मौका दिया।उसी एकता कपूर ने सीरियल ‘पवित्र रिश्ता’ में उन्हें ब्रेक दिया जिससे वे स्टार बने।खुद सुशांत ने कई बार एकता कपूर और बालाजी टेलीफिल्म्स का शुक्रिया अदा किया।फिर ‘काई पो चे’ या महेंद्र सिंह धोनी की बॉयोपिक हो या ‘केदारनाथ’ मौके तो सुशांत को इसी इंडस्ट्री ने ही दिए न।हां यह बात अवश्य है कि जो स्टार किड्स हैं या इसी इंडस्ट्री के बीच के हैं उनकी राहें शुरू में तो आसान होती हैं लेकिन अपने आप को स्थापित करने के लिए उन्हें भी पूरी निष्ठा और लगन तथा प्रतिभा की आवश्यकता होती है।
आज मेरा इन सब घटनाक्रमों को देख कर एक प्रश्न आप सभी से है कि भाई-भतीजावाद या गुटबाजी किस क्षेत्र में नहीं है।फिर तो यह मुहिम पूरे देश में चलनी चाहिए।जिन लोगों ने सुशांत की मौत से आहत होकर न जाने कितने लोगों के खिलाफ केस दाखिल किया है उन्हें एक बार अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए कि उन लाखों करोड़ों युवाओं का वे क्यों नहीं कभी सोच पाए जो इसी भाई भतीजावाद या वंशवाद या गुटबाजी या सोर्स या पैसे के कारण बेरोजगारी से तंग आकर अपनी जान गंवाने को मजबूर हुए।
शिक्षा और चिकित्सा ये दो ऐसे क्षेत्र हैं जो सबसे पवित्र माने जाते हैं और मैंने इन दोनों क्षेत्रों में ही वंशवाद और गुटबाजी या पैसे के दम पर कुछ पा लेने का ऐसा विद्रूप चित्र देखा है कि मुझे तो नफरत हो जाती है।कोई विवादास्पद बात मैं नहीं कहना चाहती लेकिन मैंने खुद देखा है कि जिन लोगों को अपने विषय की बिलकुल भी जानकारी नहीं है वे भी विश्वविद्यालय और कॉलेज के प्रोफेसर बनकर बैठे हुए हैं।इनके विषय में आसानी से एक ही बात कही जा सकती है कि ‘गुरुकृपा’ से तो इन्हें पीएच.डी.की डिग्री मिल जाती है और ‘पितृ कृपा’ से नौकरी।शायद आप समझ न पाए हों लेकिन मैंने स्वयं ऐसे लोगों को देखा है जो गुरु की कुछ आर्थिक मदद करके अपनी पूरी थीसिस ही लिखा लेते हैं या गुरु डिक्टेट करता जाता है और वे लिखते जाते हैं ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि ऐसे लोगों को डॉक्टर साहब कह तो दिया जाता है लेकिन अपने विषय के वे कितने डॉक्टर हैं यह तो उनका भी अंतःकरण जानता होगा लेकिन आजकल ऐसे बेशर्म लोगों की भी कमी नहीं है जो अपने आप को बहुत बड़ा विद्वान समझते हैं और यह काम बरसों से चल रहा है और फिर ऐसे लड़के लड़कियों के पिताजी बेचारे अपने पैरों को घिसा लेते हैं नौकरी ढूंढने में और धन की सहायता से कुछ भी खरीदने की प्रवृत्ति के चलते नौकरी भी खरीद दी जाती है।यह भी बरसों तक चला है अब इधर हाल के बरसों में क्या हुआ है वह मैं नहीं कह सकती।
इसी तरह चिकित्सा के क्षेत्र में भी डॉक्टर के बेटे को डॉक्टर बना दिया जाता है ताकि बाप की मेहनत का जो नर्सिंग होम है वह चलता रहे।चाहे इस डॉक्टरी की डिग्री को हासिल करने के लिए लाखों रुपये डोनेशन के नाम पर बर्बाद किया जाए।इतने रुपये खर्च करके जो शिक्षक या डॉक्टर बनते हैं फिर उनका मन कहीं न कहीं तो कुंठाग्रस्त रहता ही है।मुझे कई ऐसे शिक्षक अपने ही याद आते हैं जिनके प्रति मन श्रद्धा से भर जाता है जो सिर्फ अध्ययन अध्यापन में लगे रहते थे और उन्हें दुनिया का कोई दुख या अकेलापन नहीं था लेकिन आज हालात यह हैं कि वही पढ़ने-पढ़ाने का कार्य करने वाले पढ़ने-पढ़ाने से कोसों दूर है क्योंकि उनका मन इसमें रमता ही नहीं।जो कार्य हमें मिला है वह ईश्वर प्रदत्त है यदि ऐसा मान कर चला जाए तब तो उस कार्य मे मन लगे लेकिन ऐसा न करके हम पाप ही करते हैं क्योंकि कर्म रहित इंसान को तो गीता में भी नकारा गया है।कर्म न करने से कर्म करने को ही अधिक श्रेष्ठ माना गया है और वही उचित भी है।अपनी ड्यूटी छोड़कर सिर्फ पैसा खाने की प्रवृत्ति एक अपराध है।मैंने खुद डॉक्टरों का ऐसा रूप देखा है कि इंसान डर जाए उन्हें दिखाने से।एक मेडिकल कॉलेज के हेड ऑफ डिपार्टमेंट जिनका न मैं नाम लिखना चाहूंगी न कोई परिचय देकर किसी विवाद में फिलहाल पड़ना चाहूंगी, वे प्राइवेट प्रैक्टिस का अधिकार न होने के बाबजूद खुलेआम 1000 रुपये तक फीस वसूलकर मरीजों को देखते हैं।हद तो तब हो जाती है जब मैंने देखा कि ऐसे मरीज जो शायद दो जून की रोटी भी न जुटा पाते हों वे भी अपनी खून पसीने की कमाई का हज़ार रुपया उस डॉक्टर को देकर इस उम्मीद से घर जाते हैं कि इनकी कृपा से शायद मैं स्वस्थ हो जाऊं।लेकिन मुझे तो इन डॉक्टर साहब की योग्यता पर ही शक होता है।
खैर जितना भी लिखा जाए इस विषय पर उतना ही कम है।हम भारत देश के लोग एक चीज़ के हमेशा धनी थे और वह था “चरित्र”।लेकिन आज सबसे ज़्यादा कुछ गिरा है तो चरित्र।जो मुहिम आज फ़िल्म इंडस्ट्री में चल रही है उसे आज पूरे देश मे चलाना चाहिए।वंशवाद,भाई भतीजावाद, गुटबाजी, घूस देकर नौकरी प्राप्त करनी,अपने रुतबे या ओहदे का इस्तेमाल करके कुछ हासिल करना,मोटी मोटी रकम डोनेशन के नाम पर खर्च कर नौकरियां या डिग्रियां हासिल करना इन सबका समाज से दूर होना बहुत आवश्यक है।यह ऐसा घुन है जो इस देश की युवा प्रतिभाओं को खाता जा रहा है।इन सबका परिणाम ही निकलकर आता है जो समाज के हर क्षेत्र( न सिर्फ फ़िल्म इंडस्ट्री) में कुंठा,निराशा, अवसाद,भग्नाशा के रूप में दिखाई पड़ता है।जो लोग समाज के किसी भी क्षेत्र में इन अनैतिक तरीकों से भी ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर पहुंच गए हैं वे भी अब कम से कम कुछ तो अपने कर्म सुधारें।बरसों तक यदि काफी कुछ बैठकर ही खाई है तो अब से थोड़ी मेहनत करें और उन लोगों के बारे में सोचें जो उनसे कहीं ज़्यादा योग्य और मेहनती होने के बावजूद आज उस जगह पर नहीं पहुंच सके क्योंकि उनके पास नौकरी हासिल करने के लिए इतना पैसा नहीं था या (शायद बहुत से लोग इस तरीके से नौकरी हासिल भी नहीं करना चाहते)या उनका कोई सोर्स नहीं था या वे किसी के रिश्तेदार या भाई भतीजे नहीं थे।ऐसे में किसी का हक़ मारकर इन ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग कुछ अपने कर्तव्यों का पालन करना शुरू करें।उन्हें ज़िन्दगी का उद्देश्य और खुशियां अपने आप ही हासिल हो जाएंगी।

3 thoughts on “सुशांत सिंह राजपूत : शांत मौत की अशांत पुकार

  1. दुखद परिस्थितियों में उठाया गया निराशाजनक कदम। इस घटना ने बहुत व्यथित किया। सही विश्लेषण चित्र जगत का।

  2. सुशांत सिंह राजपूत जैसे अभिनेता की मौत से केवल प्रशंसकों को ही नहीं बल्कि समाज के सभी वर्गों को गहरा सदमा पहुंचा है। ईश्वर दिवंगत आत्मा को चीर शांति प्रदान करें ।।ॐ शांति ओम

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top
+